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Saturday, 24 November 2018

November 24, 2018

समेकित कृषि प्रणाली (Integrated Farming System)

समेकित कृषि प्रणाली एक ऐसी प्रणाली है। जिसमें फसल उत्पादन, मवेशी पालन, फल सब्जी उत्पादन, मछली पालन और वानिकी का इस प्रकार समायोजन किया जाता है। जिससे कि वे एक दूसरे के पूरक बन सके। इस प्रणाली के अंतर्गत पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुए संसाधनों की क्षमता, उत्पादकता और लाभ प्रदता में वृद्धि की जा सके। इससे कृषि लागत में कमी आने के साथ उत्पादन में बढ़ोतरी होती है। इस प्रणाली के तीन मुख्य भाग हैं। इनमें मत्स्य आधारित समन्वित कृषि प्रणाली, फसल आधारित समन्वित कृषि प्रणाली और पशुधन आधारित समन्वित कृषि प्रणाली शामिल है।

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Tuesday, 9 October 2018

October 09, 2018

सब्जी उत्पादन में कीट नियंत्रण

एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन के तरीकों की सफलता मुख्यतया हानिकारक कीट एवं मित्र कीटों की निगरानी के आधार पर कीट प्रबंधन के विभिन्न घटकों के एकीकरण कर सही निर्णय को लागू करने के ऊपर निर्भर है।

फसल चक्रअपनाकर कीट नियंत्रण-

किसी भी खेत में सब्जियों को लगाते समय उचित फसल-चक्र अपनाना चाहिए जिससे एक ही कुल की सब्जी को पुन: नहीं लगाना चाहिए। इस विधि से निरन्तर जीवन चक्र , अपेक्षाकृत संख्या एवं क्षति स्तर कम किया जा सकता है।

बुवाई व पौध रोपण के समय में परिवर्तन करके-

कीटों के प्रति फसल की मुलायम अवस्था को ध्यान में रखकर फसल की बुवाई तथा रोपाई के समय में परिवर्तन करके अधिक हानि से बचाया जा सकता है। सब्जियों की बुवाई व रोपाई के समय में परिवर्तन कर लाल भृंग कीट, फल मक्खी, तना एवं फल छेदक कीट के प्रकोप को कम किया जा सकता है। पौधों की बुवाई व रोपाई ऐसे समय में करना चाहिए, जब पौधों की नाजुक अवस्थाएं एवं हानिकारक कीटों की निष्क्रिय अवस्थाएं समानान्तर हों।

सस्य क्रियाओं द्वारा कीट प्रबंधन-

कीट प्रबंधन में इस घटक के ऊपर कोई अतिरिक्त खर्च नहीं होता है, साथ ही यह पर्यावरण को सुरक्षित व अधिक टिकाऊ बनाता है। सस्य क्रियाओं का चयन ऐसा होना चाहिए जिससे नाशीकीटों के ऊपर एकीकृत एवं मित्र कीटों के ऊपर अनुकूल प्रभाव पड़े। इसके अन्तर्गत उचित किस्मों का चयन, बुवाई एवं रोपाई के समय में परिवर्तन, कीट-प्रपंच, फसल चक्र एवं अंत: फसलों का सही चुनाव आदि शामिल है।

अवरोधी एवं सहनशील किस्मों का उपयोग-

किसी क्षेत्र के नाशीकीट एवं मित्र कीटों की विविधता एवं सघनता के आधार पर अवरोधी या सहनशील किस्मों का चुनाव समन्वित कीट प्रबंधन की महत्वपूर्ण कड़ी है। इस प्रकार चयनित किस्मों में अपेक्षाकृत कीटों का प्रकोप कम होता है तथा रासायनिक दवाओं के उपयोग में भी कमी आती है। यह विधि सबसे सरल, सस्ती व दुष्प्रभाव रहित है।


ग्रीष्मकालीन जुताई-

गर्मी के मौसम में गहरी जुताई करके सुषुप्ता अवस्था में पड़े कीड़ों को नष्ट करना एक प्रभावी नियंत्रण विधि है। फसल की कटाई के बाद खेत की गहरी जुताई करके फल मक्खी, कद्दू का लाल भृंग तथा कटुआ कीट के जीवन चक्र को नष्ट कर उनकी सक्रियता को कम किया जा सकता है।

अन्त: फसलीकरण-

सब्जियों की फसल के बीच में अन्त: फसलीकरण की क्रिया के द्वारा भी कीटों के प्रकोप को कम किया जा सकता है। अन्त: फसलीकरण में लगाए गए भिन्न-भिन्न प्रकृति के पौधों द्वारा छोड़े जाने वाले जैव रसायन से कीटों के प्रौढ़ दूर भागते हैं तथा उनके द्वारा अण्डा देने की क्रिया भी कम हो जाती है। इस प्रकार के पौध रोपण प्रक्रिया से परभक्षी एवं परजीवी कीटों की क्रियाशीलता को बढ़ाती है। टमाटर एवं गोभी की अन्त: फसलीकरण से इन दोनों सब्जियों में कीट अकेले की अपेक्षा कम लगते हैं।

कीटों को आकर्षित करने वाली फसलों का उपयोग-

मुख्य फसल के साथ ऐसी फसलों को लगाना चाहिए, जिनको कीट मुख्य फसल की अपेक्षा अधिक पसंद करते हैं। आकर्षित करने वाली फसलों को मुख्य फसल में लगाकर बिना किसी रसायन के प्रयोग से मुख्य फसल को आसानी से कम लागत में उगाया जा सकता है। क्योंकि मुख्य फसल पर लगने वाले कीड़े आकर्षक फसलों पर आ जाते हैं, जिनको आसानी से नष्ट किया जा सकता है। गोभीवर्गीय फसलों को हरी सूड़ी एवं पर्ण जालक कीट के नियंत्रण के लिए सरसों का तथा टमाटर में लगने वाली फल छेदक कीट के रोकथाम के लिए गेंदे के फसल को आकर्षक फसल के रूप में प्रयोग करना चाहिए।

सब्जी में जैविक विधि से कीट नियंत्रण-]

समन्वित कीट प्रबंधन में जैविक नियंत्रण एक प्रमुख घटक है। किसी भी परिस्थिति में मित्र कीट एवं अन्य सूक्ष्म जीव मुख्यतया हानिकारक कीटों की संख्या को प्राकृतिक रूप से सीमित रखने में सहायता करते हैं। जैविक नियंत्रण से इन्हीं कारकों का प्रभावी ढंग से समन्वित कीट प्रबंधन में प्रयोग होता है, तथा मित्र कीटों को सुरक्षित रखने का प्रयास किया जाता है। बहुत सारे परभक्षी व परजीवी कीट प्राकृतिक दशा में मित्र कीट के रूप में पाये जाते हैं, जो हानिकारक कीटों के विभिन्न अवस्थाओं को क्षति पहुंचाते हैं। एक हेक्टेयर टमाटर की फसल को फलछेदक कीट से रोकथाम के लिए 2,50,000 ट्राइकोग्रामा परजीवी कीट का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार क्राइसोपरला कारनिया नामक परभक्षी कीट को 50,000 प्रति हेक्टेयर की दर से दस दिन के अन्तराल पर तीन बार छोडऩे से सफेद मक्खी, हरा फुदका, माहू आदि से फसल को सुरक्षित रखा जा सकता है। कीटों के प्राकृतिक षत्रु को प्रयोगशाला में अधिक संख्या में उत्पादन कर, उसे सफलतापूर्वक, आवष्यकतानुसार फसलों पर छोड़कर विषैले रसायनों के उपयोग में कमी लायी जा सकती है।

सूक्ष्म जीव द्वारा फसलों की सुरक्षा-

सूक्ष्म जीव कीटनाशियों के अन्तर्गत जीवाणु, कवक और विषाणु का प्रयोग करके हानिकारक कीटों में रोग उत्पन्न कर उनका नियंत्रण किया जा सकता है। यह रोग हानिकारक कीड़ों में महामारी की तरह फैलता है जिससे कीड़े मर जाते हैं। सूक्ष्म कीटनाशियों में बी.टी. का प्रयोग व्यवहारिक स्तर पर किया जा रहा है। जिसके प्रयोग से गोभी का हीरक पृष्ठ कीट, भिण्डी का तना एवं फल छेदक कीट, टमाटर का फल बेधक कीटों का नियंत्रण संभव हुआ है।

यांत्रिक विधि से कीटों का नियंत्रण-

कुछ कीट जिनको आसानी से देख जा सके उन्हें पकड़कर मार देना चाहिए। हड्डा बीटल, तम्बाकू की सूड़ीं के अण्डे तथा तना व फल को भेदकर खाने वाली सूड़ीं (बैगन व भिण्डी के फल छेदक कीट) को बहुत आसानी से देखकर कीट की विभिन्न अवस्थाओं को नष्ट कर देने से इनसे होने वाली क्षति से बचा जा सकता है। कीट नियंत्रण की इस विधि में लागत कम आती है एवं यह विधि सुरक्षित भी है।

व्यवहारिक नियंत्रण-

इस विधि के अन्तर्गत प्रौढ़ कीटों को फेरोमोन का प्रयोग कर भ्रमित किया जाता है। सब्जियों में मुख्य रूप से बैगन का तना व फल बेधक, तम्बाकू की सूंड़ी, टमाटर का फल बेधक एवं फल मक्खी को फेरोमोन द्वारा आकृष्ट कर नियंत्रण किया जा सकता है।
रसायनों का सुरक्षित एवं आवश्यक मात्रा का प्रयोग- रसायनों का अनियमित और अत्यधिक प्रयोग करने से कीटों में प्रतिरोधी क्षमता का विकास हो जाता है। साथ ही हानिकारक रासायनिक अवशेषों की वातावरण में वृद्धि होती है। समन्वित कीट प्रबंधन में यदि दूसरे कारकों के साथ सही संतुलन बनाकर सुरक्षित रसायनों की सही मात्रा एवं उचित अंतराल पर छिड़काव किया जाय तो कीटनाशी रसायन बहुत प्रभावी होता है। विभिन्न कीटनाशियों का अलग-अलग प्रतीक्षाकाल होता है। इसलिए दवा छिड़कने के बाद प्रतिक्षाकाल के बाद फल की तुड़ाई करने से रासायनिक अवयवों के अवषेष नहीं रहते हैं।
October 09, 2018

एलोवेरा की खेती भी किसानों को लाभ देती


ग्वारपाठा, घृतकुमारी या एलोवेरा जिसका वानस्पतिक नाम एलोवेरा बारबन्डसिस हैं तथा लिलिऐसी परिवार का सदस्य है। इसका उत्पत्ति स्थान उत्तरी अफ्रीका माना जाता है। एलोवेरा को विभिन्न भाषाओं में अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है, हिन्दी में ग्वारपाठा, घृतकुमारी, घीकुंवार, संस्कृत में कुमारी, अंग्रेजी में एलोय कहा जाता है। एलोवेरा में कई औषधीय गुण पाये जाते हैं, जो विभिन्न प्रकार की बीमारियों के उपचार में आयुर्वेदिक एंव युनानी पद्धति में प्रयोग किया जाता है जैसे पेट के कीड़ों, पेट दर्द, वात विकार, चर्म रोग, जलने पर, नेत्र रोग, चेहरे की चमक बढ़ाने वाली त्वचा क्रीम, शेम्पू एवं सौन्दर्य प्रसाधन तथा सामान्य शक्तिवर्धक टॉनिक के रूप में उपयोगी है। इसके औषधीय गुणों के कारण इसे बगीचों में तथा घर के आस पास लगाया जाता है। 

पहले इस पौधे का उत्पादन व्यावसायिक रूप से नहीं किया जाता था तथा यह खेतों की मेढ़ में नदी किनारे अपने आप ही उग जाता है। परन्तु अब इसकी बढ़ती मांग के कारण कृषक व्यावसायिक रूप से इसकी खेती को अपना रहे हैं, तथा समुचित लाभ प्राप्त कर रहे हैं।
एलोवेरा के पौधे की सामान्य उंचाई 60-90 सेमी. होती है। इसके पत्तों की लंबाई 30-45 सेमी. तथा चौड़ाई 2.5 से 7.5 सेमी. और मोटाई 1.25 सेमी. के लगभग होती है। एलोवेरा में जड़ के ऊपर जो तना होता है उसके उपर से पत्ते निकलते हैं, शुरूआत में पत्ते सफेद रंग के होते हैं। एलोवेरा के पत्ते आगे से नुकीले एवं किनारों पर कटीले होते हैं। पौधे के बीचो बीच एक दण्ड पर लाल पुष्प लगते हैं। हमारे देश में कई स्थानों पर एलोवेरा की अलग- अलग प्रजातियां पाई जाती हैं। जिसका उपयोग कई प्रकार के रोगों के उपचार के लिये किया जाता है। इसकी खेती से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए किसान भाई निम्न बातें ध्यान में रखे:-

जलवायु एवं मृदा

यह उष्ण तथा समशीतोष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। कम वर्षा तथा अधिक तापमान वाले क्षेत्रों में भी इसकी खेती की जा सकती है। इसकी खेती किसी भी प्रकार की भूमि में की जा सकती है। इसे चट्टानी, पथरीली, रेतीली भूमि में भी उगाया जा सकता है, किन्तु जलमग्न भूमि में नहीं उगाया जा सकता है। बलुई दोमट भूमि जिसका पी.एच. मान 6.5 से 8.0 के मध्य हो तथा उचित जल निकास की व्यवस्था हो उपयुक्त होती है।

खेत की तैयारी

ग्रीष्मकाल में अच्छी तरह से खेत को तैयार करके जल निकास की नालियां बना लेना चाहिये तथा वर्षा ऋतु में उपयुक्त नमी की अवस्था में इसके पौधें को 50 & 50 सेमी. की दूरी पर मेढ़ अथवा समतल खेत में लगाया जाता है। कम उर्वर भूमि में पौधों के बीच की दूरी को 40 सेमी. रख सकते हैं। जिससे प्रति हेक्टेयर पौधों की संख्या लगभग 40,000 से 50,000 की आवश्यकता होती है। इसकी रोपाई जून-जुलाई माह में की जाती है। परन्तु सिंचित दशा में इसकी रोपाई फरवरी में भी की जा सकती है।

निंदाई-गुडाई

प्रारंभिक अवस्था में इसकी बढ़वार की गति धीमी होती है। अत: प्रारंभिक तीन माह तक में 2-3 निंदाई गुड़ाई की आवश्यकता होती है। क्योंंकि इस काल मे विभिन्न खरपतवार तेजी से वृद्धि कर ऐलोवेरा की वृद्धि एवं विकास पर विपरीत असर डालते हैं। 8 माह के बाद पौधे पर मिट्टी चढ़ाएं जिससे वे गिरे नहीं ।

खाद एवं उर्वरक

सामान्यतया एलोवेरा की फसल को विशेष खाद अथवा उर्वरक की आवश्यकता नहीं होती है। परन्तु अच्छी बढ़वार एवं उपज के लिए 10-15 टन अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद को अंतिम जुताई के समय खेत में डालकर मिला देना चाहिए । इसके अलावा 50 किग्रा. नत्रजन, 25 किग्रा. फास्फोरस एवं 25 किग्रा. पोटाश तत्व देना चाहिये । जिसमे से नत्रजन की आधी मात्रा एवं फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी रोपाई के समय तथा शेष नत्रजन की मात्रा 2 माह पश्चात् दो भागों में देना चाहिए अथवा नत्रजन की शेष मात्रा को दो बार छिड़काव भी कर सकते हैं।

सिंचाई

एलोवेरा असिंचित दशा में उगाया जा सकता है। परन्तु सिंचित अवस्था में उपज में काफी वृद्धि होती है। ग्रीष्मकाल में 20-25 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करना उचित रहता है। सिंचाई जल की बचत करके एवं अधिक उपयोग करने के लिये स्प्रिंकलर या ड्रिप विधि का उपयोग कर सकते हैं।

पौध संरक्षण

इस फसल में साधारणतया कोई कीड़े अथवा रोग का प्रकोप नहीं होता है। परन्तु भूमिगत तनों व जड़ों को ग्रब नुकसान पहुंचाते हैं। जिसकी रोकथाम के लिये 60-70 किलोग्राम नीम की खली प्रति हेक्टर के अनुसार दें अथवा 20-25 किग्रा. क्लोरोपायरीफॉस डस्ट प्रति हेक्टर का भुरकाव करें । वर्षा ऋतु में तनों एवं पत्तियों पर सडऩ एवं धब्बे पाये जाते हैं, जो फफूंदजनित रोग है। जिसके उपचार के लिये मेन्कोजेब 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना उपयुक्त रहता है।

अंतरवर्तीय फसल

एलोवेरा की खेती अन्य फल वृक्ष औषधीय वृक्ष या वन में रोपित पेड़ों के बीच में सफलतापूर्वक की जा सकती है।

कटाई एवं उपज

इस फसल की उत्पादन क्षमता बहुत अधिक हैं फसल की रोपाई के बाद एक वर्ष के बाद पत्तियां काटने लायक हो जाती है। इसके बाद दो माह के अन्तराल से परिपक्व पत्तियों को काटते रहना चाहिए। सिंचित क्षेत्र मे प्रथम वर्ष में 35-40 टन प्रति हेक्टर उत्पादन होता है। तथा द्वितीय वर्ष में उत्पादन 10-15 फीसदी तक बढ़ जाता है। उचित देखरेख एवं समुचित पोषक प्रबंधन के आधार पर इससे लगातार तीन वर्षों तक उपज ली जा सकती है। असिंचित अवस्था में लगभग 20 टन प्रति हेक्टर उत्पादन मिल जाता है।

प्रवर्धन विधि एवं रोपाई

इसका प्रवर्धन वानस्पतिक विधि से होता है। व्यस्क पौधों के बगल से निकलने वाले चार पांच पत्तियों युक्त छोटे पौधे उपयुक्त होते हैं, प्रारंभ में ये पौधे सफेद रंग के होते हैं, तथा बड़े होने पर हरे रंग के हो जाते हैं। इन स्टोलन/सर्कस को मातृ पौधे से अलग करके नर्सरी या सीधे खेत में रोपित करते हैं
October 09, 2018

मिर्च की तुड़ाई के समय क्या-क्या सावधानियां आवश्यक



मिर्च एक नगदी फसल है मिर्च हो या अन्य सब्जी फसल जिनका फलन लम्बे समय तक चलता है की मिर्च की तुड़ाई में यदि विशेष सावधानियां नहीं बरती गई तो पौधों को हानि होती है। मजदूरों को ऐसी हिदायत देना जरूरी होगा ताकि तुड़ाई ढंग से करें ताकि पौधों को कम से कम हानि पहुंचें।
– हरी मिर्च तोड़ते समय यह सावधानी रखें कि फूलों और अविकसित फलों को हानि नहीं पहुंचे।
– हरी मिर्च की तुड़ाई लगभग 6 से 8 बार हर सप्ताह की जाना चाहिये।
– सामान्यत: पके हुए फलों को थोड़े-थोड़े समय के अंतराल हाथ से तोड़ कर 3-4 तुड़ाई की जा सकती है।
– ग्रीष्म और शरदऋतु की फसल को पकने पर तोड़ते हैं। तथा सुखाकर बेचते हैं।
– अचार वाली मिर्च को हरी अवस्था में तोडं
– सुखाने के लिये पक्के फर्श पर सुखाये तथा पतली परते रखें तथा परतों को पलटते रहें।
October 09, 2018

taroi (nenua) ki kheti kaise kare - नेनुआ कैसे करे पूरी जानकरी हिंदी


क्या आप तोरई ( नेनुवा ) की खेती करने के बारे में सोच रहे है तो बहुत ही अच्छा सोच रहे है अगर हम दिल लगा कर कोई भी खेती करते है तो हम सफल हो जायेंगे लेकिन अगर हम खेती में लापरवाही करते है तो हमारी खेती और फसल अच्छा नहीं होगा बहुत सारे किसान खेती करके अच्छा पैसा कमा रहे है
नेनुआ की खेती बिहार ,उतर प्रदेश , केरला , बंगाल में की जाती है नेनुआ की खेती हर किस्म की मिटटी पे की जा सकती है नेनुआ बेल पे लगने वाली सब्जी है
नेनुआ की खेती जनवरी से फ़रवरी महीने में की जाती है और जून से जुलाई महीने में की जाती है
(तरोई)  नेनुआ की खेती हलकी और दोमट मिटटी में अच्छी तरह से की जा सकती है
( तरोई  ) की खेती आप घर में भी बहुत आराम से कर सकते है घर में नेनुवा के बुवाई के लिए आप पोट में भी इसकी बुवाई कर सकते है और रस्सी के सहारे अच्छा फसल लगा सकते है



 ( तरोई ) नेनुआ की बहुत सारी किस्मे होती है जैसे पूसा नारदार ,कोयम्बुर 1 ,कोयम्बुर 2 ,राजेंद्र नेनुवा 1 , पूसा चिकनी कल्याणपुर चिकनी ,
तरोई की बीज बनाने वाली बहुत सारी कंपनी है लेकिन मैं आपको सलाह दूंगा की आप अच्छे कंपनी के बीज बोये  अच्छे बीज आपको अच्छी पैदावार देगी और उससे अच्छे पैसे कमा सकते है 


तोरई के खेती कब करे ?

तोरई की बुवाई जनवरी के महीने से लेकर मार्च के महीने तक करे और जून से जुलाई के महीने में करे वैसे अगर आप जनवरी के लास्ट में करते है तो अच्छा होगा या फरवरी में क्यूंकि इस समय तापमान अच्छा रहता है और बीज अच्छे अंकुरित होते है 

तोरोइ की खेती के लिए खेत का चुनाव ?

तोरई की खेती लगभग सभी तरह के मिटटी में उगाया जा सकता है लेकिन अच्छा जल निकास वाला मिटटी अच्छी होती है इसके लिए बलुई दोमट मिटटी अच्छी होती है 

खेत की तैयारी ?


तोरई की खेती की लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करना अच्छा मन जाता है जुताई गहरी से गहरी करनी चाहिए उसके बाद सड़ी हुई गोबर की खाद, DAP, पोटाश, फोरेट 10 G, ज़िंक, को अच्छी तरह से पुरे खेत में डाले और जुताई करवाए लेकिन एक बात आपको याद रखने की जरुरत है आप बुवाई के समय खेत की नमी पे खास ध्यान दे क्यूंकि मिटटी में कम नमी के वजह से बीज अच्छे से अंकुरित नहीं हो पते है अगर आपके खेत में नमी की कमी है तो पहले सिचाई करे फिर उसकी जुताई कराये 

बुवाई कैसे करे ?


बुवाई के लिए क्यारिया बनाये और क्यारियों में बुवाई करे और जब आपके फसल अच्छे अंकुरित हो जाते है फिर आप सिंचाई पर ध्यान दे और नमी की कमी होती है तो सिंचाई करे और पौधे में अच्छी बढ़वार के लिए PG 50 और मास्क का स्प्रै करे हर 10 दिन पर PG 50 और कोई भी कीटनाशक मिला कर स्प्रै करने से आपके पौधे में अच्छी बढ़वार होगी और हानिकारक कीट से भी बचे रहेंगे तभी आप तोरई की खेती से अच्छा पैसा कमा पाएंगे 
 अगर आप अच्छी कंपनी का बीज की बुवाई किये है तो उसके फल 40 से 45 दिन में निकलने लगेंगे आप उसको नरम अवस्था में तुड़ाई करवाकर बाजार में बेच दे 
मुझे उम्मीद है आप तोरई की खेती के बारे में अच्छे से सिख लिया होगा अगर आपका कोई भी सवाल या सुझाव है तो हमें कमेंट बॉक्स में बताये .

October 09, 2018

भिंडी की खेती करके लाखो पैसे कमाए - पूरी जानकारी

अगर आप भिंडी की खेती करके लाखो पैसे कमाने की सोच रहे है तो आप बिलकुल सही सोच रहे है भिंडी की खेती करके आप लाखो कमा सकते है लेकिन उसके लिए आपको भिंडी की खेती के लिए सही जानकारी होना बहुत ही जरुरी है जैसे की किस समय पर बुवाई करना और किस समय पर सिंचाई करना और बीमारियों से कैसे बचाना है अगर आप ये  तरीको से जानते है तो आप अच्छी तरीके से खेती करके लाखो पैसे कमा सकते है आज मैं आपको इस पोस्ट में भिंडी यानि (ladyfinger) के बारे में पूरी जानकारी दूंगा



भिंडी की  खेती कैसे करे ?

भिंडी की खेती के लिए सबसे पहले अच्छे बीज का चुनाव जरुरी होता है और खेत का चुनाव अगर आप अच्छे खेत का चुनाव करते है तो आप अच्छी फसल का उम्मीद कर सकते है और सबसे जरुरी अच्छे बीज का चुनाव होता है क्यूंकि अगर हम अच्छे हाइब्रिड बीज का चुनाव करेंगे तो हमें अच्छी पैदावार मिलेगी और हम अच्छी आमदनी कमा पाएंगे बहुत सारे किसान भाई अच्छे बीज नहीं होने के वजह से उनका बहुत नुकसान होता है इस लिए मैं आपको हर पोस्ट में अच्छे बीज का चुनाव के बारे में बताता हूँ अच्छे बीज के लिए आप हमसे संपर्क कर सकते है 

भिंडी की खेती कब करे ?

 अच्छे फसल के प्राप्ति के लिए सही मौसम का होना बहुत ही जरुरी  होता है मौसम की  होने के वजह से फसल का बहुत सारा नुकसान भी हो  सकता है भिंडी की खेती के लिए गर्मी का मौसम सबसे अच्छा माना जाता है भिंडी की खेती के लिए काम से काम 20 डिग्री तापमान जरुरी है और ज्यादा से ज्यादा 40 डिग्री इससे ज्यादा होने पर फूल के गिरने का खतरा होता है 

खेती का चुनाव ?

 खेत में अच्छी फसल के लिए खेत का चुनाव अच्छे से करे जिसमे जल निकास अच्छा हो वैसे तो भिंडी की खेती हर तरह के मिटटी पे की जा सकती है लेकिन बलुई दोमट मिटटी अच्छी मानी जाती है भूमि का चुनाव करने के बाद खेत को अच्छी मिटटी पलटने वाले हल से जुताई करवाए 2 ,3. बार अच्छे से जुताई करवा कर खेत को अच्छी तरह समतल कर दे 

खाद कैसे डाले ?

भिंडी की खेती  के लिए खाद भी बहुत जरुरी होता है खेत में जुताई से पहले सड़ी हुई गोबर की खाद डाले १ बार गहरी से गहरी जुताई करवाए और खर पतवार को अच्छी तरह से साफ़ कर ले बुवाई के पहले DAP खाद पोटाश ज़िंक सल्फर फोरेट 10 G डाल कर अच्छी तरह से मिलाये और खेत को समतल कर दे और ध्यान देने वाली बात है आपके खेत में अच्छी नमी होनी चाहिए खेत में अच्छी नमी नहीं होने के वजह से बीज अच्छी तरह अंकुरित नहीं हो  पाते है  इसलिए मैं आपको सलाह दूंगा की आप खेत की नमी पे भी खास ध्यान दे 

भिंडी की बुवाई कब करे ?

भिंडी की बुवाई जनवरी के लास्ट या फ़रवरी में करे इस समय तापमान 20 डिग्री रहता है इस समय आप बुवाई करते है तो बीज अच्छे अंकुरित होंगे वैसे तो आप मार्च के सुरुवाती में करते है तो भी आप अच्छी उपज कर सकते है इसके अलावा आप जून जुलाई में कर सकते है 

 सिंचाई कैसे करे ?

बीज बोन के 15-20 दिन बाद पहला निडाई गुड़ाई करना जरुरी होता है इस ये समय हमारे लिए बहुत ही धयान देने वाली होती है इस समय खरपतवार भी बहुत  उगते है इस समय खरपतवार को साफ करे और कीड़ो का भी बहुत प्रकोप होता है इस समय सिंचाई करे कोई भी कीटनाशक और ग्रोथ रेगुलेटर मिला कर स्प्रै करे ताकि पौधे की अच्छी बढ़वार हो सके जब भी खेत में नमी होती है तो सिंचाई करे क्यूंकि ज्यादा गर्मी  के वजह से नमी नहीं रह पाती है इस लिए समय पर सिंचाई जरूर करे 

किट / रोग से पौधे को कैसे बचाये ?

वैसे तो भिंडी में बहुत तरह के किट लगते है लेकिन मैं आपको इसके बारे में अच्छे से बताऊंगा आप इससे बहुत ही आसानी से बच सकते है और आप अच्छा पैसा कमा  सकते है 
बहुत सारे किट से बचने का एक उपाय है आप बुवाई के समय फोरेट 10 G का इस्तेमाल करे और पौधे जब 15 -20 दिन के हो जाये तब आप PG - 50 सल्फर और कीटनाशक मिला कर हर हप्ते में 1 बार स्पे करे 
ध्यान यही कोई भी दवा का स्प्रै करने के बाद फल को न तोड़े फल को तोड़ लेने के बाद स्प्रै करे 
बुवाई के 40 से 45 दिन बाद फल निकलने लगते है फल को नरम अवस्था में तोड़ कर बाजार में बेच दे फल को नरम अवस्था में तोड़ कर बाजार में बेचने से अच्छा कीमत मिलता है 

मुझे उम्मीद है की आपने भिंडी की खेती के बारे में अच्छी तरीके से समझ लिए होगा अगर आपका कोई भी सवाल या सुझाव है तो हमें कमेंट बॉक्स में बताये या हमें कांटेक्ट करे आप हमारे पास सभी तरह के सब्जी के बीज उपलब्ध है आप हर तरह के बीज के लिए संपर्क कर सकते है 

+91 - 9973667258

Monday, 8 October 2018

October 08, 2018

कैसे करें आम की खेती



परिचय
आम की खेती लगभग पूरे देश में की जाती हैI यह मनुष्य का बहुत ही प्रीय फल मन जाता है इसमे खटास लिए हुए मिठास पाई जाती हैI जो की अलग अलग प्रजातियों के मुताबिक फलो में कम ज्यादा मिठास पायी जाती हैI कच्चे आम से चटनी आचार अनेक प्रकार के पेय के रूप में प्रयोग किया जाता हैI इससे जैली जैम सीरप आदि बनाये जाते हैI यह विटामीन ए व् बी का अच्छा श्रोत हैI


जलवायु और भूमि

आम की खेती के लिए किस प्रकार की जलवायु और भूमि की आवश्यकता होती है?
आम की खेती उष्ण एव समशीतोष्ण दोनों प्रकार की जलवायु में की जाती हैI आम की खेती समुद्र तल से 600 मीटर की ऊँचाई तक सफलता पूर्वक होती है इसके लिए 23.8 से 26.6 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान अति उतम होता हैई आम की खेती प्रत्येक किस्म की भूमि में की जा सकती हैI परन्तु अधिक बलुई, पथरीली, क्षारीय तथा जल भराव वाली भूमि में इसे उगाना लाभकारी नहीं है, तथा अच्छे जल निकास वाली दोमट भूमि सवोत्तम मानी जाती हैI

प्रजातियाँ

आम के पेड़ लगाने से पहले वो कौन-कौन सी उन्नतशील प्रजातियाँ है?
हमारे देश में उगाई जाने वाली किस्मो में, दशहरी, लगडा, चौसा, फजरी, बाम्बे ग्रीन, अलफांसो, तोतापरी, हिमसागर, किशनभोग, नीलम, सुवर्णरेखा,वनराज आदि प्रमुख उन्नतशील प्रजातियाँ हैI

गड्डों की तैयारी में सावधानियाँ

आम की फसल तैयार करने के लिए गढ्ढ़ो की तैयारी किस तरह से करे और वृक्षों का रोपण करते समय किस तरह की सावधानी बरते?
वर्षाकाल आम के पेड़ो को लगाने के लिए सारे देश में उपयुक्त माना गया हैI जिन क्षेत्रो में वर्षा आधिक होती है वहां वर्षा के अन्त में आम का बाग लगाना चाहिएI लगभग 50 सेन्टीमीटर व्यास एक मीटर गहरे गढ्ढे मई माह में खोद कर उनमे लगभग 30 से 40 किलो ग्राम प्रति गड्ढा सड़ी गोबर की खाद मिटटी में मिलाकर और 100 किलोग्राम क्लोरोपाइरिफास पावडर बुरककर गड्ढो को भर देना चाहिएI पौधों की किस्म के अनुसार 10 से 12 मीटर पौध से पौध की दूरी होनी चाहिए, परन्तु आम्रपाली किस्म के लिए यह दूरी 2.5 मीटर ही होनी चाहिएI

प्रवर्धन या प्रोपोगेशन

आम की फसल में प्रवर्धन या प्रोपोगेशन किन- किन विधियो दवारा किया जा सकता है?
आम के बीजू पौधे तैयार करने के लिए आम की गुठलियों को जून-जुलाई में बुवाई कर दी जाती है आम की प्रवर्धन की विधियों में भेट कलम, विनियर, साफ्टवुड ग्राफ्टिंग, प्रांकुर कलम, तथा बडिंग प्रमुख है, विनियर एवम साफ्टवुड ग्राफ्टिंग द्वारा अच्छे किस्म के पौधे कम समय में तैयार कर लिए जाते हैI

खाद एवं उर्वरक

आम की फसल में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग कब करना चाहिए ?
बागो की दस साल की उम्र तक प्रतिवर्ष उम्र के गुणांक में नाइट्रोजन, पोटाश तथा फास्फोरस प्रत्येक को १०० ग्राम प्रति पेड़ जुलाई में पेड़ के चारो तरफ बनायीं गयी नाली में देनी चाहिएI इसके अतिरिक्त मृदा की भौतिक एवं रासायनिक दशा में सुधार हेतु 25 से 30 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद प्रति पौधा देना उचित पाया गया हैI जैविक खाद हेतु जुलाई-अगस्त में 250 ग्राम एजोसपाइरिलम को 40 किलोग्राम गोबर की खाद के साथ मिलाकर थालो में डालने से उत्पादन में वृदि पाई गयी हैI

सिंचाई का समय

आम की फसल सिचाई हमें कब करनी चाहिए, और किस प्रकार करनी चाहिए?
आम की फसल के लिए बाग़ लगाने के प्रथम वर्ष सिचाई 2-3 दिन के अन्तराल पर आवश्यकतानुसार करनी चाहिए 2 से 5 वर्ष पर 4-5 के अन्तराल पर आवश्यकताअनुसार करनी चहियेI तथा जब पेड़ो में फल लगने लगे तो दो तीन सिचाई करनी अति आवश्यक हैI आम के बागो में पहली सिचाई फल लगने के पश्चात दूसरी सिचाई फलो का काँच की गोली के बराबर अवस्था में तथा तीसरी सिचाई फलो की पूरी बढवार होने पर करनी चाहिएI सिचाई नालियों द्वारा थालो में ही करनी चाहिए जिससे की पानी की बचत हो सकेI

गुड़ाई और खरपतवार नियंत्रण

आम की फसल में निराई गुड़ाई और खरपतवारो का नियंत्रण हमारे किसान भाई किस प्रकार करे?
आम के बाग को साफ रखने के लिए निराई गुड़ाई तथा बागो में वर्ष में दो बार जुताई कर देना चाहिए इससे खरपतवार तथा भूमिगत कीट नष्ट हो जाते है इसके साथ ही साथ समय समय पर घास निकलते रहना चाहिएI

रोग और नियंत्रण

आम की फसल में कौन कौन से रोग लगते है और उसका नियंत्रण हम किस प्रकार करें?
आम के रोगों का प्रबन्धन कई प्रकार से करते हैI जैसे की पहला आम के बाग में पावडरी मिल्ड्यू यह एक बीमारी लगती है इसी प्रकार से खर्रा या दहिया रोग भी लगता है इनसे बचाने के लिए घुलनशील गंधक 2 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में या ट्राईमार्फ़ 1 मिली प्रति लीटर पानी या डाईनोकैप 1 मिली प्रति लीटर पानी घोलकर प्रथम छिडकाव बौर आने के तुरन्त बाद दूसरा छिडकाव 10 से 15 दिन बाद तथा तीसरा छिडकाव उसके 10 से 15 दिन बाद करना चाहिए आम की फसल को एन्थ्रक्नोज फोमा ब्लाइट डाईबैक तथा रेडरस्ट से बचाव के लिए कापर आक्सीक्लोराईड 3 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर 15 दिन के अन्तरालपर वर्षा ऋतु प्रारंभ होने पर दो छिडकाव तथा अक्टूबर-नवम्वर में 2-3 छिडकाव करना चाहिएI जिससे की हमारे आम के बौर आने में कोइ परेशानी न होI इसी प्रकार से आम में गुम्मा विकार या माल्फर्मेशन भी बीमारी लगती है इसके उपचार के लिए कम प्रकोप वाले आम के बागो में जनवरी फरवरी माह में बौर को तोड़ दे एवम अधिक प्रकोप होने पर एन.ए.ए. 200 पी. पी. एम्. रसायन की 900 मिली प्रति 200 लीटर पानी घोलकर छिडकाव करना चहियेI इसके साथ ही साथ आम के बागो में कोयलिया रोग भी लगता हैI जिसको की किसान भाई सभी आप लोग जानते है इसके नियंत्रण के लिए बोरेक्स या कास्टिक सोडा 10 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर प्रथम छिडकाव फल लगने पर तथा दूसरा छिडकाव 15 दिन के अंतराल पर करना चाहिए जिससे की कोयलिया रोग से हमारे फल ख़राब न हो सकेI

कीट और उनका नियंत्रण

कौन - कौन से कीट है, जो आम में लगते है, और उनका नियंत्रण किस प्रकार होना चाहिए?
आम में भुनगा फुदका कीट, गुझिया कीट, आम के छल खाने वाली सुंडी तथा तना भेदक कीट, आम में डासी मक्खी ये कीट हैI आम की फसल को फुदका कीट से बचाव के लिए एमिडाक्लोरपिड 0.3 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर प्रथम छिडकाव फूल खिलने से पहले करते हैI दूसरा छिडकाव जब फल मटर के दाने के बराबर हो जाये, तब कार्बरिल 4 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलकर छिडकाव करना चाहिएI इसी प्रकार से आम की फसल को गुझिया कीट से बचाव के लिए दिसंबर माह के प्रथम सप्ताह में आम के तने के चारो ऒर गहरी जुताई करे, तथा क्लोरोपईरीफ़ास चूर्ण 200 ग्राम प्रति पेड़ तने के चारो बुरक दे, यदि कीट पेड़ पर चढ़ गए हो तो एमिडाक्लोरपिड 0.3 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर जनवरी माह में 2 छिडकाव 15 दिन के अंतराल पर करना चाहिए तथा आम के छल खाने वाली सुंडी तथा तना भेदक कीट के नियंत्रण के लिए मोनोक्रोटोफास 0.5 प्रतिशत रसायन के घोल में रूई को भिगोकर तने में किये गए छेद में डालकर छेद बंद कर देना चाहिएI एस प्रकार से ये सुंडी ख़त्म हो जाती हैI आम की डासी मक्खी के नियंत्रण के लिए मिथाईलयूजीनाल ट्रैप का प्रयोग प्लाई लकड़ी के टुकडे को अल्कोहल मिथाईल एवम मैलाथियान के छः अनुपात चार अनुपात एक के अनुपात में घोल में 48 घंटे डुबोने के पश्चात पेड़ पर लटकाए ट्रैप मई के प्रथम सप्ताह में लटका दे तथा ट्रैप को दो माह बाद बदल देI

फलों को तोड़ने का समय

आम की फसल की तुड़ाई कब करनी चाहिए और किस प्रकार करनी चाहिए?
आम की परिपक्व फलो की तुड़ाई 8 से 10 मिमी लम्बी डंठल के साथ करनी चाहिए, जिससे फलो पर स्टेम राट बीमारी लगने का खतरा नहीं रहता हैI तुड़ाई के समय फलो को चोट व् खरोच न लगने दें, तथा मिटटी के सम्पर्क से बचायेI आम के फलो का श्रेणीक्रम उनकी प्रजाति, आकार, भार, रंग व परिपक्ता के आधार पर करना चाहिएI

उपज

आम की फसल से औसतन उपज कितनी प्राप्त कर सकते है?
रोगों एवं कीटो के पूरे प्रबंधन पर प्रति पेड़ लगभग 150 किलोग्राम से 200 किलोग्राम तक उपज प्राप्त हो सकती हैI लेकिन प्रजातियों के आधार पर यह पैदावार अलग-अलग पाई गयी हैI
October 08, 2018

कृषि आय बढ़ाने वाली कम लागत की तकनीकें

इस वास्तविकता से इनकार नहीं किया जा सकता है कि आज भी हमारे देश में बहुसंख्यक किसान सीमान्त या लघु कृषकों की श्रेणी में आते हैं। मोटे तौर पर ऐसे कृषकों से आशय है एक हेक्टेयर से कम भूमि जोत वाले कृषक। इनमें से अधिकांश किसानों की पैदावार अपने परिवार के लिये गुजर-बसर करने लायक खाद्यान्न के उत्पादन तक ही सिमटी हुई है। सरप्लस उपज तो बहुत दूर की बात है- बाढ़, सूखा या अन्य विपदाओं के कारण किसानों के लिये कभी-कभी तो खेती की लागत भी निकालनी मुश्किल पड़ जाती है। अच्छी उपज मिल भी जाये तो उचित मूल्य मिलना मुश्किल होता है। 


फलों-सब्जियों जैसी शीघ्र खराब होने वाली फसलों को भी उन्हें मजबूरी में स्थानीय खरीददारों के हाथों में औने-पौने दामों में बेचना पड़ जाता है। ऐसे ही तमाम कारणों के कारण वर्तमान में किसान परिवार के बच्चे खेती को आय अर्जन का आधार बनाने से कतराते हैं और रोजगार की तलाश में शहरों की तरफ पलायन करने को कहीं बेहतर विकल्प समझते हैं। ये ग्रामीण युवा जोश में ऐसे कदम तो उठा लेते हैं पर यह सोच नहीं पाते कि शहरी जिन्दगी की परेशानियों और अथक मेहनत करने के बावजूद दो जून की रोटियाँ जुटा पाने के संघर्ष में उनकी जिन्दगी उलझकर रह जाएगी।

केन्द्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के अन्तर्गत देश में कृषि अनुसन्धान और कृषि शिक्षा का संचालन और प्रबन्धन करने वाली शीर्ष संस्था के रूप में भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद (भाकृअनुप) के अधीन कार्यरत में 103 से अधिक कृषि अनुसन्धान संस्थानों, प्रायोजना निदेशालयों और लगभग 700 कृषि विज्ञान केन्द्रों द्वारा इसी क्षेत्र में निरन्तर काम किया जा रहा है। 

इनके द्वारा विशेषकर सीमान्त, छोटे और मझोले किसानों के लिये कृषि को लाभदायी बनाने, कम लागत की खेतीबाड़ी की तकनीकों, समेकित कृषि प्रणाली, खेती के साथ पशुपालन, शूकर पालन, मात्स्यिकी, मधुमक्खी पालन, रेशम उत्पादन, खाद्य प्रसंस्करण, जैविक खेती, वैज्ञानिक खेती के विभिन्न आयामों आदि पर आधारित तमाम कृषि प्रणालियों और प्रौद्योगिकियों एवं तकनीकों का विकास किया गया है। 

इनका उपयोग कर सीमान्त किसान भी अपनी छोटी जोतों से साल भर में न सिर्फ कई फसलों का उत्पादन कर सकते हैं बल्कि समेकित/मिश्रित कृषि को अपनाकर अतिरिक्त आय आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। आइए, चर्चा करते हैं ऐसी ही कम लागत वाली कृषि प्रौद्योगिकियों/तकनीकों की जिन्हें परिषद के विभिन्न अनुसन्धान संस्थानों द्वारा तैयार किया गया है। इन्हें छोटे और सीमान्त किसान भी बिना ज्यादा निवेश के आसानी से अपना सकते हैं।

मोटे अनाजों से बढ़ाएँ आय


इस वर्ग में ज्वार, सांवां, कुटकी, कोड़ों, चेना, कंगनी, रागी जैसे गौण अनाजों का उल्लेख किया जा सकता है। इनमें प्रोटीन, रेशे, विटामिनों आदि की भरपूर मात्रा पाई जाती है। भाकृअनुप-भारतीय कदन्न अनुसन्धान संस्थान, हैदराबाद के वैज्ञानिक की मेहनत का नतीजा है कि विभिन्न प्रकार के मोटे अनाजों की खेती के लिये उन्नत प्रौद्योगिकियों का विकास सम्भव हो सका है जिनसे बेहतर गुणवत्ता (78 प्रतिशत तक) के साथ अधिक उपज (58 प्रतिशत तक) भी ली जा सकती है। 

इन नई तकनीकों में अन्तः फसलों (ज्वार-अरहर, ज्वार-सोयाबीन आदि) की खेती से भी अधिक आय प्राप्ति के विकल्प पर जोर दिया गया है। अधिक उपज देने में सक्षम विभिन्न मोटे अनाजों का विकास भी इस क्रम में किया गया है। उदाहरण के लिये ज्वार की अधिक पैदावार देने में सक्षम किस्म ज्वार संकर-सी एस एच 17 का उल्लेख किया जा सकता है। इससे प्रचलित ज्वार की किस्मों की तुलना में 50 प्रतिशत से अधिक उपज सम्भव है।

जावा सिट्रोनेला से कमाई


विभिन्न औद्योगिक एवं घरेलू उपयोगों के कारण इसके तेल की माँग में हाल के वर्षों में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। इसके पत्तों से लेमनग्रास की तरह का तेल निकलता है। यह तेल बाजार में 1000 से 1200 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बिकता है। 

खेती के पहले वर्ष में 150-200 किलोग्राम तथा दूसरे से पाँचवें वर्ष तक 200-300 किलोग्राम तक तेल इस बहुवर्षीय घासरूपी फसल की कटाई से प्राप्त हो जाता है। पहले साल ही इसकी बुआई पर खर्च होता है। उसके बाद आगामी वर्षों में इस पर नगण्य खर्च होता है। मोटे तौर पर इससे किसान को शुद्ध लाभ 50-70 प्रतिशत तक या 80 हजार रुपए प्रति हेक्टेयर तक मिल जाता है। इस बारे में भाकृअनुप-उत्तर-पूर्व विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी संस्थान, जोरहट से अधिकृत जानकारी मिल सकती है।

प्याज और लहसुन-आधारित नई प्रौद्योगिकियाँ


खरीफ मौसम में प्याज एवं लहसुन का उत्पादन कम होता है। इसके पीछे मुख्य रूप से पानी का जमाव, कीटों और रोगों का प्रकोप और खरपतवार जैसे कारक जिम्मेदार हैं। भाकृअनुप-प्याज एवं लहसुन अनुसन्धान निदेशालय, पुणे द्वारा खरीफ में भी प्याज उत्पादन की ऐसी प्रौद्योगिकियों का विकास किया गया है जिनके इस्तेमाल से किसान इन फसलों की उत्पादकता बढ़ाकर उच्च कीमत प्राप्त कर सकते हैं। उदाहरण के लिये निदेशालय के मार्गदर्शन में विदर्भ के देउलगाँव के एक किसान श्री नामदेवराव अदाऊ का उल्लेख किया जा सकता है जिन्होंने अपनी 4 एकड़ जमीन पर ‘भीमा सुपर’ प्याज की किस्म से 2.60 लाख रुपए तक की आय प्राप्त करने में सफलता हासिल की।

जलसंचय प्रौद्योगिकी से बढ़ी कृषि आय


खेतों में वर्षाजल अमूमन बिना किसी उपयोग के बह जाता है और इसके साथ ही खेत की उर्वर मिट्टी की ऊपरी परत भी चली जाती है। इस समस्या के समाधान के लिये भाकृअनुप- केन्द्रीय बारानी कृषि अनुसन्धान संस्थान, हैदराबाद द्वारा एक विशेष जल संचयन प्रौद्योगिकी को विकसित किया गया है। इसके तहत खेत के निचले हिस्से में तालाब बनाए जाते हैं और खेत के जलबहाव को नालियों के जरिए इस तालाब तक पहुँचाया जाता है। इसका दोहरा फायदा किसानों को मिलता है। पहला तो यही कि सूखे की स्थिति में भी फसलों की सिंचाई के लिये जल की उपलब्धता सुनिश्चित हो जाती है और दूसरा, इस तालाब में मछली पालन से भी अतिरिक्त आय हासिल की जा सकती है।

गन्ना खेती की लागत को कम करने वाले कृषि यंत्र


कृषि श्रमिकों की बढ़ती लागत तथा कृषि उपयोगी पशुओं को पालने का प्रचलन कम होने से गन्ना किसानों के लिये खेती काफी खर्चीली होती जा रही है। इस समस्या को दूर करने के उद्देश्य से भाकृअनुप-भारतीय गन्ना अनुसन्धान संस्थान, लखनऊ द्वारा गन्ने की खेती के लिये जरूरी सभी प्रकार के कृषि उपयोगी उपकरणों/यंत्रों का विकास किया गया है। इनकी मदद से गन्ने के खेत की तैयारी, बुवाई, निराई-गुड़ाई एवं अन्य कृषि क्रियाओं के खर्च में उल्लेखनीय रूप से बचत सम्भव है। इनसे बीज और खाद की मात्रा में 15-20 प्रतिशत की कमी, गन्ना पौधों की सघनता में 5-20 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी, उत्पादकता में 10-15 प्रतिशत की वृद्धि तथा श्रम लागत में 20-80 प्रतिशत तक की बचत सम्भव है।

बासमती धान में आईपीएम प्रणाली से लाभ


बासमती धान की अधिकतर प्रजातियों में कीट रोगों से प्रतिरोधकता नहीं होने की वजह से तनाबेधक, पत्ती लपेटक, भूरा फुदका रोग, गंधी बग, शीथ ब्लाईट, ब्लास्ट तथा बकाने जैसे रोगों के कारण उपज में काफी कमी हो जाती है। भाकृअनुप-राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबन्धन अनुसन्धान केन्द्र, नई दिल्ली के वैज्ञानिकों द्वारा आईपीएम (समेकित कीट प्रबन्धन) के स्थान पर विशिष्ट मॉडल विकसित किये गए हैं जिनका फायदा उत्तर प्रदेश, हरियाणा और उत्तराखण्ड के बासमती धान की खेती करने वाले किसान उठा सकते हैं। इनके प्रयोग से कीटनाशकों के छिड़काव में कमी, सन्तुलित मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग तथा उर्वरक लागत में कमी तथा सिंचाई एवं मजदूरी के खर्च में काफी बचत होती है। इस प्रकार कुल फसल लागत में भी कमी आती है। इतना ही नहीं कम कीटनाशकों के प्रयोग से तैयार ऐसे धान की बाजार में कीमत भी ज्यादा मिलती है।

अन्तरवर्ती फसल प्रणाली से भरपूर मुनाफा


इस प्रणाली में एक ही खेत में, एक ही मौसम में एवं एक ही समय में दो या दो से अधिक फसलों का एक साथ उत्पादन किया जा सकता है। इस प्रकार कम लागत में प्रति इकाई क्षेत्रफल से अधिक उत्पादन लिया जा सकता है। इस पद्धति में धान्य फसलों के साथ दलहनी फसलों को भी उगा पाना सम्भव है। एक सीधी तो दूसरी फैलने वाली फसल लगाने से खरपतवारों का नियंत्रण भी इस अन्तरवर्ती फसल प्रणाली में किया जा सकता है। यही नहीं फसलों को रोगों और कीटों से भी इस विधि से बचाया जा सकता है, जैसे चने की फसल में धनिया को अन्तरवर्ती फसल के रूप में उगाने से चने में लगने वाले कीटों की रोकथाम कर अधिक उपज ली जा सकती है।

केन्द्रीय फसलों से आमदनी


आलू और अन्य केन्द्रीय फसलों (कसावा, शकरकंद, जिमीकंद टेनिया, याम अरारूट आदि) की खेती में संलग्न किसान इन फसलों की उपयुक्त किस्में, आधुनिक उत्पादन एवं संरक्षण तकनीकें अथवा प्रसंस्करण प्रौद्योगिकियाँ अपनाकर अपनी आमदनी को उल्लेखनीय रूप से बढ़ा सकते हैं। विश्वास नहीं होगा पर यह सच है कि पश्चिम बंगाल में आलू से मिलने वाली शुद्ध आय, चावल और गेहूँ की तुलना में लगभग तीन गुना ज्यादा और इसी प्रकार बिहार में भी आलू से कहीं अधिक मुनाफा परम्परागत फसलों की तुलना में मिलता है। इन केन्द्रीय फसलों से कई तरह के मूल्यवर्धित खाद्य उत्पाद भी बनाए जाते हैं। इनमें प्रमुख तौर पर आलू के चिप्स और कसावा से तैयार किये जाने वाले स्नैक्स फूड, पास्ता आदि का जिक्र किया जा सकता है। जैव इथेनॉल उत्पादन में भी कसावा का कम महत्त्व नहीं है।

कुमट का महत्त्व


कुमट एक वृक्ष है जिससे गोंद मिलता है। यह गोंद अत्यन्त उच्च गुणवत्ता वाला होता है एवं बाजार में 500 से 800 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बिकता है। इसका उपयोग दवा उद्योग, खाद्य उत्पादों तथा अन्य उद्योगों में किया जाता है। अमूमन ये वृक्ष अर्ध-शुष्क जलवायु और कंकरीली-पथरीली भूमि पर होते हैं। कृषि वानिकी के अन्तर्गत इसे बड़े पैमाने पर उगाकर अच्छी-खासी आय साल-दर-साल प्राप्त की जा सकती है। इसके बारे में अधिक जानकारी भाकृअनुप-कृषि वानिकी अनुसन्धान संस्थान, झाँसी से हासिल की जा सकती है।

जैविक खेती के लिये कृषि पद्धतियाँ


जैविक उत्पादों या ऑर्गेनिक प्रोडक्ट्स का बाजार मूल्य अधिक मिलने के कारण किसानों का जैविक खेती की ओर बड़ी संख्या में आकर्षित होना स्वाभाविक है। किसानों के बीच जैविक कृषि की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए 45 फसलों/फसल पद्धतियों पर आधारित जैविक कृषि पद्धतियों का विकास किया गया है। इनका प्रचार-प्रसार राष्ट्रीय जैविक कृषि केन्द्र, परम्परागत कृषि विकास योजना तथा राष्ट्रीय बागवानी मिशन के माध्यम से किया जा रहा है।

समेकित कृषि प्रणाली मॉडल


देश के विभिन्न कृषि पारिस्थितिकी क्षेत्रों में कृषि उत्पादकता बढ़ाने के उद्देश्य से लघु एवं सीमान्त कृषकों के अनुरूप विविध फसलों, बागवानी उत्पादों, कृषि वानिकी, पशुधन तथा मात्स्यिकी पर आधारित 45 बहु-उद्यमी समेकित कृषि प्रणाली मॉडलों का विकास किया गया है। इनके उपयोग से कृषकों की आय को 1.5-3.5 लाख रुपए तक बढ़ाया जा सकता है। इन कृषि प्रणालियों से सम्बन्धित विस्तृत जानकारी के लिये भाकृअनुप-भारतीय कृषि प्रणाली अनुसन्धान संस्थान, मोदीपुरम से सम्पर्क किया जा सकता है।

आलू उत्पादन के लिये निम्न लागत पद्धति


आलू की खेती में अन्य फसलों की तुलना में कहीं अधिक निवेश करना पड़ता है। इस प्रकार खेती की लागत का करीब 35-40 प्रतिशत बीजों, लगभग 40 प्रतिशत कृषि मजदूरी, 14 प्रतिशत उर्वरकों एवं खाद तथा 7 प्रतिशत सिंचाई पर खर्च हो जाता है। भाकृअनुप-केन्द्रीय आलू अनुसन्धान संस्थान, शिमला द्वारा आलू उत्पादन में श्रम, बीज, जुताई, उर्वरक तथा सिंचाई निवेशों में होने वाले व्यय में बचत के लिये विशिष्ट प्रौद्योगिकी विकसित की गई है। किसान इसे अपनाकर कम लागत में आलू उत्पादन कर अधिक मुनाफा कमा सकते हैं।

इसबगोल की खेती से लाभ


इसबगोल एक महत्त्वपूर्ण फसल है जो रबी के मौसम के दौरान गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान में उगाई जाती है। इसके बीज के आवरण को भूसी के नाम से जाना जाता है और इसमें कई तरह के औषधीय गुण होते हैं। यह जानकर आश्चर्य होगा कि अन्तरराष्ट्रीय बाजार में इसबगोल की भूसी निर्यात करने वाला भारत एकमात्र राष्ट्र है। इसकी खेती से बड़ी सरलता से 15-20 हजार रुपए की कमाई प्रति हेक्टेयर ली जा सकती है। इसकी खेती से जुड़े वैज्ञानिक पहलुओं के बारे में जानकारी के लिये भाकृअनुप-राष्ट्रीय औषधीय एवं सगंधीय पौध अनुसन्धान संस्थान केन्द्र, आनन्द से सम्पर्क किया जा सकता है।

आम के पुराने अनुत्पादक बागों की जीर्णोद्धार प्रौद्योगिकी


वैज्ञानिक अध्ययनों से यह तथ्य सामने आया है कि पुराने और सघन आम के बागों की उत्पादकता में लगभग 30 से 35 प्रतिशत तक की कमी होती जा रही है। भाकृअनुप-केन्द्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान, लखनऊ द्वारा आम के पुराने बागों के जीर्णोद्धार की पद्धति का विकास किया गया है। ऐसे पेड़ों को पुनः उत्पादक बनाने की लागत लगभग 160 रुपए प्रति पेड़ आती है और ऐसे उपचारित पेड़ आगामी 20-25 वर्षों तक फलों का उत्पादन करते रहते हैं। इस प्रकार नए आम के बाग लगाने के निवेश से बचा जा सकता है।

शुष्क क्षेत्रों में सब्जियाँ उगाने के लिये घड़ा सिंचाई प्रौद्योगिकी


जल की कमी वाले क्षेत्रों में फसलों के अधिक उत्पादन के लिये जल-संरक्षण तथा दक्षतापूर्ण जल इस्तेमाल करने से सम्बन्धित नीतियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। भाकृअनुप-केन्द्रीय मृदा लवणता अनुसन्धान संस्थान, करनाल ने सीमित जल का कुशलता से उपयोग कर बेहतर फसलोत्पादन के लिये घड़ा सिंचाई तकनीक की संस्तुति की है। इस पद्धति का नाम इसके प्रमुख घटक घड़े के नाम पर ही रखा गया है। इस प्रणाली से टमाटर की उपज में तीन गुना तथा अन्य सब्जियों में दो गुना लाभ-लागत अनुपात मिलता है। यह अत्यन्त साधारण प्रौद्योगिकी है और इस तकनीक की आर्थिकी पूर्णतः घड़ों के जीवन पर निर्भर करती है। इसके तहत धरातल पर रखे घड़ों के विपरीत दबे हुए घड़ों से पानी सीधे मृदा में जाता है और घड़ों की दीवारों से वाष्पन के जरिए जल की हानि नहीं होती है।

गेहूँ बीज उत्पादन तकनीक


स्व परागित फसल होने के कारण गेहूँ की किस्मों की गुणवत्ता में साल-दर-साल गिरावट आने लगता है। ऐसे में बीजों को 5 से 6 वर्षों के अन्तराल के बाद बदलना जरूरी हो जाता है। बाजार से हर बार नए बीज खरीदकर बोना खेती की लागत को काफी बढ़ा देता है। इसलिये किसानों के लिये यह जरूरी हो जाता है कि वे इस्तेमाल के लिये प्रजनक, सत्यापित या प्रमाणित बीज किसी सरकारी अथवा विश्वसनीय स्रोत से खरीदकर न सिर्फ इनका इस्तेमाल करें बल्कि स्वयं इनका बहुगुणन भी करें। इस प्रकार तैयार बीजों का प्रयोग वे अगले सीजन में कर सकते हैं और आकर्षक मूल्य पर इनको बेचकर अतिरिक्त लाभ भी कमा सकते हैं। इस बारे में उपयोगी जानकारी भाकृअनुप-गेहूँ अनुसन्धान निदेशालय, करनाल द्वारा प्रकाशित मार्गदर्शिका से मिल सकती है।

भारत सरकार ही नहीं विभिन्न राज्य सरकारों के कृषि अनुसन्धान से जुड़े विभाग और कृषि अनुसन्धान संस्थानों/कृषि विश्वविद्यालयों में भी कृषक समुदाय के लिये उपयोगी नई और वैज्ञानिक कृषि प्रणालियों का निरन्तर विकास किया जा रहा है। इन अद्यतन सूचनाओं तथा कृषि सम्बन्धित जानकारियों का प्रचार-प्रसार करने के लिये देश के प्रत्येक जिले (कुछ जिलों में एक से अधिक भी) में कृषि विज्ञान केन्द्रों की स्थापना की गई है। किसान भाई इनके वैज्ञानिकों से सीधे सम्पर्क कर उन्नत कृषि प्रणालियों से सम्बन्धित जानकारियाँ एवं प्रशिक्षण भी प्राप्त कर सकते हैं।

जल संग्रहण/प्रबन्धन की प्रभावी रणनीतियाँ


भारत में विश्व के मात्र 4 प्रतिशत जल संसाधन की उपलब्धता है जबकि वैश्विक आबादी का 16 प्रतिशत हिस्सा यहीं बसता है। ऐसे में जल संरक्षण और इसके दक्ष उपयोग के महत्त्व को भलीभाँति समझा जा सकता है। जल संरक्षण मोटे तौर पर तीन तरीकों से सम्भव है- वर्षाजल संरक्षण, नहरी जल प्रबन्धन और भूजल संरक्षण।

वर्षाजल संरक्षण


इसमें खेती योग्य क्षेत्र में संचित वर्षाजल के अन्तःसरण (इंफिल्ट्रेशन) में सुधार के द्वारा मृदा में जल संरक्षण को बढ़ाया जाता है। इस प्रक्रिया में 100 सेमी चौड़ी क्यारियाँ, 50 सेमी गहरे कुंड/कंटूर के साथ बनाई जाती हैं। अमूमन 5 प्रतिशत की मृदा ढलान एवं वर्षा जहाँ 350-750 मिमी होती है, उस जगह को इसके लिये चुना जाता है। कुंड के दोनों तरफ फसलों को लगाया जाता है। इसी तरह से कंटूर ट्रेंचिंग पद्धति के माध्यम से खाइयों को कृत्रिम रूप से फसल क्षेत्र में कंटूर पंक्तियों के साथ तैयार किया जाता है। यदि वर्षाजल पहाड़ी के नीचे की ओर बह रहा है तो इन खाइयों द्वारा जल को संग्रहित किया जा सकता है। बाद में यह जल मृदा की ऊपरी सतही परतों में फसल विकास एवं उपज वृद्धि के लिये अन्तःसरित हो जाता है। इसी तरह से सीढ़ीदार खेत एवं कंटूर मेड़बन्दी पद्धति के अन्तर्गत पहाड़ी ढलान को कई छोटे-छोटे ढलानों में बाँटते हैं और जल-प्रवाह को रोककर मृदा में जल अवशोषण को बढ़ा दिया जाता है। माइक्रो कैचमेंट या सूक्ष्म जलग्रहण तकनीक के जरिए बारानी क्षेत्रों से वर्षाजल को संग्रहित किया जाता है, ताकि उस क्षेत्र की मृदा में सुधार हो सके। इसके तहत मुख्यतः पेड़ों या वृक्षों को उगाया जाता है। एक्स सीटू जल संरक्षण तकनीकों में वर्षाजल अपवाह को फसल क्षेत्र से बाहर संरक्षित किया जाता है। इसके लिये खेत तालाब, चेक डैम आदि का निर्माण किया जाता है।

नहरी जल संरक्षण


नहरी सिंचाई का कुल सिंचाई में लगभग 29 प्रतिशत योगदान है। कुछ नहरें वर्ष भर सिंचाई जल उपलब्ध करवाती हैं जिससे जब भी फसलों को सिंचाई जल की जरूरत हो, तुरन्त उपलब्ध करवाया जा सकता है। इस तरह से सूखे की स्थिति से फसलों का बचाव किया जा सकता है। कहीं-कहीं पर नहरों के जल को संरक्षित रखने के लिये सहायक जल संचयन संरचनाओं का निर्माण भी किया जाता है।

भूजल प्रबन्धन


भूजल हमारे देश में सिंचाई, घरेलू एवं औद्योगिक क्षेत्रों की जल आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये बहुत ही महत्त्वपूर्ण संसाधन है। भूजल की 91 प्रतिशत खपत कृषि कार्यों में तथा शेष 9 प्रतिशत घरेलू और औद्योगिक उपयोग में होती है। भूजल की प्राकृतिक आपूर्ति बढ़ने के लिये भूभरण अत्यन्त आवश्यक है। यह प्राकृतिक अथवा कृत्रिम तौर पर भी हो सकता है। प्राकृतिक पुनःजल आपूर्ति एक अत्यन्त ही धीमी प्रक्रिया है, इसलिये कृत्रिम पुनःभरण को भी प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके अन्तर्गत जल विस्तार, गड्ढों एवं कुओं से पुनःभरण एवं सतही जल निकायों से पम्पिंग आदि का सहारा लिया जा सकता है।

पोषक तत्वों से भरपूर खाद्यान्न किस्में


देश में कृषि वैज्ञानिकों द्वारा निरन्तर पोषक तत्वों से भरपूर नई खाद्यान्न किस्मों का विकास किया जा रहा है। इनमें हाल ही में तैयार भारत की पहली जैव सम्पूरित गेहूँ किस्म डब्ल्यूबी-2 का नाम उल्लेखनीय है। इसमें जस्ते की मात्रा 42 पीपीएम है जोकि अन्य प्रचलित किस्मों की तुलना में 15 प्रतिशत अधिक है। इसके अतिरिक्त इसमें लौह तत्व 40 पीपीएम हैं जो अन्य किस्मों की अपेक्षा 5 प्रतिशत अधिक हैं। उच्च प्रोटीन (12.4 प्रतिशत) और श्रेष्ठ चपाती गुणों वाली यह किस्म पोषण सुरक्षा की दृष्टि से काफी उपयोगी कही जा सकती है। धान की पहली जिंक से समृद्ध बायो फोर्टिफाइड किस्म डीआरआर धान-45 में 22.6 पीपीएम मात्रा में जिंक की उपस्थिति पाई गई है। 

अनाज की अन्य प्रमुख पोषक तत्वों से परिपूर्ण किस्मों में मक्का की पूसा विवेक क्यूपीएम 9 उन्नत की उपयोगिता भी कुछ कम नहीं है। इसमें विटामिन ‘ए’ और उच्च मात्रा में ट्रिप्टोफेन एवं लाइसिन की मात्रा पाई जाती है। इसी प्रकार बाजरा की एचएचबी-299 किस्म का नाम लिया जा सकता है जिसमें लौह तत्व और जस्ते की उच्च मात्रा पाई जाती है। अनाज और दलहन के बाद कंदीय फसलें तीसरा महत्त्वपूर्ण आहार स्रोत हैं। विश्व-स्तर पर प्रत्येक पाँच में से एक व्यक्ति का मुख्य भोज्य आहार कंदीय फसलें हैं। ये फसलें भुखमरी की चुनौती का सामना करने तथा खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने की दृष्टि से पोषक तत्वों का खजाना हैं। उदाहरण के लिये शकरकंद की हाल ही में विकसित भू सोना किस्म विटामिन ‘ए’ के साथ उच्च ऊर्जा, विटामिन ‘बी’, ‘सी’, ‘के’ फास्फोरस एवं पोटैशियम से भी भरपूर है। विटामिन ‘ए’ की कमी से पीड़ित लोगों के लिये शकरकंद की यह किस्म किसी वरदान से कम नहीं है। 

इसी प्रकार शकरकंद की भ-कृष्णा किस्म भी काफी महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है जिसमें एंथोसायनिन एवं फ्लेवनायड यौगिक ऑक्सीकरण रोधी गुण वाले होते हैं और ये तत्व शरीर में कैंसर की प्रतिरोधता को बढ़ाने में मददगार हैं। कसावा या टैपियोका में आलू से लगभग दोगुनी मात्रा में कैलोरी पाई जाती है। कसावा की श्री स्वर्णा किस्म में बीटा कैरोटीन पर्याप्त मात्रा में पाई जाती है।