केंचुओं की मदद से कचरे को खाद में परिवर्तित करने हेतु केंचुओं को नियंत्रित वातावरण में पाला जाता है। इस क्रिया को वर्मीकल्चर कहते हैं, केंचुओं द्वारा कचरा खाकर जो कास्ट निकलती है उसे एकत्रित रूप से वर्मी कम्पोस्ट कहते हैं।
केंचुआ कृषि में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान भूमि सुधार के रूप में देता है। इनकी क्रियाशीलता मृदा में स्वतः चलती रहती है। प्राचीन समय में प्रायः भूमि में केंचुए पाये जाते थे तथा वर्षा के समय भूमि पर देखे जाते थे। परन्तु आधुनिक खेती में अधिक रासायनिक खादों तथा कीटनाशकों के लगातार प्रयोगों से केंचुओं की संख्या में भारी कमी आई है। जिस भूमि में केंचुए नहीं पाये जाते हैं उनसे यह स्पष्ट होता है कि मिट्टी अब अपनी उर्वरा शक्ति खो रही है तथा उसका ऊसर भूमि के रूप में परिवर्तन हो रहा है।
केंचुआ मिट्टी में पाये जाने वाले जीवों में सबसे प्रमुख है। ये अपने आहार के रूप में मिट्टी तथा कच्चे जीवांश को निगलकर अपनी पाचन नलिका से गजारते हैं जिससे वह महीन कम्पोस्ट में परिवर्तित हो जाते हैं और अपने शरीर से बाहर छोटी-छोटी कास्टिग्स के रूप में निकालते हैं। इसी कम्पोस्ट को वर्मी कम्पोस्ट कहा जाता है। केंचुओं का प्रयोग कर व्यापारिक स्तर पर खेत पर ही कम्पोस्ट बनाया जाना सम्भव है। इस विधि द्वारा कम्पोस्ट मात्र 45 दिन में तैयार हो जाता है।
केंचुओं का पालन ‘कृमि संवर्धन‘ या ‘वर्मी कल्चर’ कहलाता है। अब तक केंचुओं की 4500 प्रजातियों विश्व के विभिन्न भागों में बताई जा चुकी हैं। केंचुए दो प्रकार के हैं- जलीय व स्थलीय।
आज केंचुओं की कुछ ऐसी प्रजातियाँ विकसित कर ली गई हैं जिनको पालकर आप प्रतिदिन के कूड़ा-करवट को अच्छी खाद ‘वर्मी कम्पोस्ट’ में बदल सकते हैं। यह खाद इतनी शक्तिशाली होती है कि इसमें पौधों द्वारा चाहे गए कभी पोषक तत्व भरपूर मात्रा में मौजूद होते हैं तथा पौधे इनको तुरन्त ग्रहण कर लेते हैं।
वर्मीकल्चर लकड़ी के बॉक्स, प्लास्टिक के क्रेट, प्लास्टिक की बाल्टी अथवा ईंट व सीमेंट के छोटे टैंक में किया जा सकता है। यह एक कम गहरे गड्ढे में भी किया जा सकता है। वर्मीकल्चर के लिये 20 लीटर क्षमता की बाल्टी अथवा 45 सेमी.X45 सेमी.X30 सेमी. का लकड़ी का डिब्बा लिया जा सकता है। यदि गड्ढे अथवा टैंक में वर्मी कल्चर किया जाना है तो वह छायादार जगह में होना चाहिए और उस स्थान पर पानी एकत्र नहीं होना चाहिए।
वर्मीकल्चर हेतु उपयुक्त पात्र का चुनाव करने के बाद उसमें छोटे-छोटे छिद्र कर दिये जाते हैं ताकि उससे अतिरिक्त बाहर पानी निकल जाये। इसके बाद पात्र में वर्मी बैड तैयार किया जाता है। वर्मी बैड में सबसे नीचे वाले परत में छोटे-छोटे पत्थर ईंट के टुकड़े व मोटी रेत 3.5 सेमी. की मोटाई तक डाली जाती है। ताकि पानी का वहन ठीक प्रकार से हो। इसके बाद इसमें मिट्टी का एक परत दिया जाता है जो कम-से-कम 15 सेमी. मोटाई का होना चाहिए। फिर इसे अच्छी तरह गीला किया जाता है।
यदि सिर्फ एपीजेइक जाति अथवा एक्सोटिक केंचुए पाले जा रहे हैं तो मिट्टी के मोटे परत की आवश्यकता नहीं है, पर जब एपीजेइक और एनेसिक दोनों जाति के केंचुए एक साथ पाले जाते हैं तब मिट्टी का परत आवश्यक है। इसके लिये अपने आस-पास के परिसर से एकत्र किये गए करीब 100 केंचुए मिट्टी के परत में छोड़ दिये जाते हैं। इसके ऊपर ताजे गोबर के छोटे-छोटे लड्डू जैसे बनाकर रख दिये जाते हैं।
अब पूरे बॉक्स को लगभग 10 सेमी. मोटे सूखे कचरे की तह से ढँक दिया जाता है। इस प्रकार बने वर्मीबैड को जूट की थैली के आवरण से ढँक दिया जाता है। इस पर थोड़ा पानी छिड़क कर गीला किया जाता है। बहुत अधिक पानी डालना आवश्यक नहीं है। इस प्रकार 30 दिन तक वर्मीबैड में नमी रखना है और उसकी पक्षियों, मुर्गियों, मेंढक आदि से रक्षा करनी है। इस समय में केंचुओं का विकास और प्रजनन होता है।
30 दिन बाद 31वें दिन वर्मीबैड में थोड़ा-थोड़ा जैविक कचरा समान रूप से फैला सकते है कचरे की तह की मोटाई 5 सेमी से अधिक मोटी नहीं होनी चाहिए, अन्यथा कचरे के सड़ने से जो गर्मी उत्पन्न होगी उससे केंचुओं को नुकसान हो सकता है। एक सप्ताह में दो बार कचरा वर्मीबैड पर डाला जा सकता है। इस समय भी वर्मीबैड में 50-50 प्रतिशत नमी बनाए रखना आवश्यक है। 30 दिन तक इस प्रकार केंचुओं को भोजन देते हैं। 30 दिन बाद भोजन देना बन्द कर दें और केंचुओं के बॉक्स को ढँककर रख दें। ढँक कर रखना केंचुओं की सुरक्षा के लिये अनिवार्य है पर इस तरह से ढँके कि बॉक्स में हवा का वहन ठीक प्रकार से होता रहे।
भोजन देने के 30-40 दिन बाद केंचुओं द्वारा पूर्ण जैविक पदार्थ/कचरा काले रंग के दानेदार वर्मीकास्ट में बदल जाता है। वर्मीकम्पोस्ट, वर्मीकास्ट एवं पूर्णतः सड़े हुए कचरे की खाद का मिश्रण होता है। वर्मीकम्पोस्ट बन जाने के बाद केंचुओं के कल्चर बॉक्स में पानी देना बन्द कर दिया जाता है। नमी की कमी की वजह से केंचुए बॉक्स में नीचे की ओर चले जाते हैं, इस समय खाद को ऊपर से निकालकर अलग से एक पॉलिथीन पर छोटे ढेर के रूप में निकाल लिया जाता है। इस ढेर को भी थोड़ी देर धूप में रखा जाता है ताकि केंचुए नीचे की ओर चले जाएँ। ऊपर का कम्पोस्ट अलग कर लिया जाता है। नीचे के कम्पोस्ट को केंचुओं सहित पुनःकल्चर बॉक्स में डालकर दूसरा चक्र शुरू कर दिया जाता है।
कल्चर बॉक्स में केंचुए को बढ़ाने के बाद अधिक मात्रा में कचरे का उपयोग करके वर्मीकम्पोस्ट बनाया जा सकता है इसके लिये एपीजेइक किस्म के केंचुए उपयोग में लाये जा सकते हैं।
अधिक मात्रा में खाद बनाने के लिये सर्वप्रथम छायादार स्थान का चुनाव करना आवश्यक है। यदि खेत अथवा बाग-बगीचे में छायादार वृक्षों की कतारें है तो उनके नीचे केंचुआ खाद के लिये वर्मीबैड बनाए जा सकते हैं। अन्यथा खेत के किनारे पर 6-8 फीट ऊँचे बाँस अथवा डंडे गाड़कर ऊपर घास का छप्पर डालकर कृत्रिम शेड बनाया जा सकता है। अधिक मात्रा में खाद बनाने के लिये वर्मीबैड की चौड़ाई 3 फीट से अधिक एवं ऊँचाई 1 फीट से अधिक नहीं होनी चाहिए। लम्बाई स्थान एवं कचरे की उपलब्धता के आधार पर कितनी भी हो सकती है किन्तु वर्मीबैड बनाने का स्थान धरातल से थोड़े ऊँचाई वाले स्थान पर होना चाहिए ताकि आस-पास का पानी उसमें एकत्र न हो सकें।
जमीन पर वर्मीबैड बनाने के लिये सर्वप्रथम सूखी डंठलों एवं कचरे को बैड की लम्बाई-चौड़ाई के आकार में बिछा दें। इस पर सब प्रकार के मिश्रित कचरे, जिसमें सूखा कचरा, हरा कचरा, किचन वेस्ट, घास, राख इत्यादि मिश्रित हो, उसकी करीब 4 इंच मोटी परत बिछा दें। इस पर अच्छी तरह पानी देकर उसे गीला कर दें। इसके ऊपर सड़ा हुआ अथवा सूखे गोबर के खाद की 3-4 इंच मोटी परत बिछा दें। इसे भी पानी से गीला कर दें।
पानी का हल्का-हल्का छिड़काव करना है बहुत अधिक पानी डालना आवश्यक नहीं। इस पर 1 वर्गमीटर में 100 के हिसाब से स्थानीय अथवा एक्सोटिक प्रजाति के जो भी केंचुए उपलब्ध हो वे छोड़े जा सकते हैं। इसके ऊपर पुनः हरी पत्तियों का 2-3 इंच पतला परत देकर पूरे वर्मीबैड को सूखी घास अथवा टाट की बोरी से ढँक दिया जाता है। मेंढक, मुर्गियों अथवा अन्य पक्षियों एवं लाल चीटिंयों से वर्मीबैड को बचाना आवश्यक है।
इस प्रकार वर्मीबैड बनाने के बाद पुनः कचरा डालने की आवश्यकता नहीं है। इस वर्मीबैड से कुछ दूरी पर इसी तरह कचरा एकत्र करके दूसरा वर्मीबैड तैयार कर सकते हैं। करीब 40-60 दिन बाद जब पहले वर्मीबैड खाद तैयार हो जाता है, तब उसमें पानी देना बन्द कर देते हैं व कल्चर बॉक्स की तरह ही इसमें से धीरे-धीरे ऊपर का खाद निकाल लिया जाता है। नीचे की तह खाद जिसमें सारे केंचुए होते हैं उसे दूसरे वर्मीबैड पर डाल दिया जाता है ताकि उसमें वर्मीकम्पोस्ट की क्रिया आरम्भ हो जाये। ताजे निकाले गए वर्मीकम्पोस्ट के ढेर को भी वर्मीबैड के नजदीक ही रखा जाता है व उसमें पानी देना बन्द कर देते हैं। नमी की कमी की वजह से उसमें से केंचुए धीरे-धीरे नजदीक के वर्मीबैड में चले जाते हैं वर्मीकम्पोस्ट खेत में डालने के लिये तैयार हो जाता है। इस खाद में जो केंचुए के छोटे-छोटे अंडे व बच्चे होते हैं उनसे जमीन में प्राकृतिक रूप से केंचुओं की संख्या बढ़ती है।
यदि घर अथवा खेत में थोड़ा-थोड़ा कचरा एकत्र होता है तब बायोडंग पद्धति के अथवा चार गड्ढे के चक्रीय तंत्र का प्रयोग करके भी अच्छा वर्मीकम्पोस्ट तैयार किया जा सकता है।
यदि कचरे व स्थान की उपलब्धता अधिक हो व बड़ी मात्रा में कम्पोस्ट तैयार करना हो तब छायादार जगह में पहले बायोडंग बनाकर एक महीने बाद वर्मीबैड तैयार करके खाद बनाया जा सकता है। इस पद्धति से व्यावसायिक स्तर पर भी खाद बनाई जा सकता है।
वर्मीकम्पोस्ट में साधारण मृदा की तुलना में 5 गुना अधिक नाइट्रोजन, 7 गुना अधिक फॉस्फेट, 7 गुना अधिक पोटाश, 2 गुना अधिक मैग्नीशियम व कैल्शियम होते हैं। प्रयोगशाला जाँच करने पर विभिन्न पोषक तत्वों की मात्रा इस प्रकार पाई जाती है-
नाइट्रोजन 1.0-2.25 प्रतिशतफास्फोरस 1.0-1.50 प्रतिशतनाइट्रोजन 2.5-3.00 प्रतिशत
यह पत्तियों पर छिड़कने के लिये छिड़काव के रूप में तैयार किया जाता है। यह 10-25 लीटर धारण क्षमता वाली एक प्लास्टिक की बाल्टी अथवा मिट्टी का रंजन/मटका जिसमें टोटी लगी हो, उसमें बनाया जा सकता है। वर्मीवाश बनाने के लिये बाल्टी को निम्न प्रकार से भरा जाता है–
पहली परत -- 2”-3” ईंट व पत्थरदूसरी परत -- 2” रेत तीसरी परत -- 6” – 9” मिट्टी व पुराना कम्पोस्टचौथी परत -- 2” हरी घास, पत्तियाँ इत्यादिइस प्रकार बाल्टी भरकर उसमें 100 से 120 केंचुए छोड़ दिये जाते हैं। एक माह बाद इस बाल्टी के ऊपर एक छोटे मटके में पानी भरकर उसमें बारीक-बारीक छेद करके लटका दिया जाता है, जिसमें कपड़े की चिन्दियों के माध्यम से पानी रिसता रहता है। एक माह में केंचुए जो बाल्टी के ऊपर से नीचे की ओर बारीक-बारीक चालन करते हैं उनमें बारीक-बारीक रिक्तिकाएँ बाल्टी में भरे कम्पोस्ट में बन जाती है। ऊपर बँधे मटके में रिसता पानी से रिक्तिकाएँ बाल्टी में भरे कम्पोस्ट में बन जाती है। ऊपर बँधे मटके से रिसता पानी जब रिक्तिकाओं से गुजरता है तब उसमें केंचुए के शरीर से मूत्र एवं पसीने के रूप में छूटने वाला कोलाइडल द्रव्य मिल जाता है, जिसमें कई उपयोगी वृद्धिकारक हार्मोन्स एवं पोषक तत्व होते हैं। यह पानी बाल्टी के नीचे लगी टोंटी से 24 घंटे बाद खोलकर एकत्र कर लिया जाता है, इसे वर्मीवाश कहते हैं। यह कीट नियंत्रण में भी सहायक होता है।
वर्मी कम्पोस्ट एक अच्छी किस्म की खाद है तथा साधारण कम्पोस्ट या गोबर की खाद से ज्यादा लाभदायक साबित हुई है। इसके प्रयोग करने में निम्नलिखित लाभ है–
1. वर्मी कम्पोस्ट को भूमि में बिखेरने से भूमि भुरभुरी एवं उपजाऊ बनती है। इससे पौधों की जड़ों के लिये उचित वातावरण बनता है। जिससे उनका अच्छा विकास होता है।
2. भूमि एक जैविक माध्यम है तथा इसमें अनेक जीवाणु होते हैं जो इसको जीवन्त बनाए रखते हैं इन जीवाणुओं को भोजन के रूप में कार्बन की आवश्यकता होती है। वर्मी कम्पोस्ट मृदा से कार्बनिक पदार्थों की वृद्धि करता है तथा भूमि में जैविक क्रियाओं को निरन्तरता प्रदान करता है।
3. वर्मी कम्पोस्ट में आवश्यक पोषक तत्व प्रचुर व सन्तुलित मात्रा में होते हैं। जिससे पौधे सन्तुलित मात्रा में विभिन्न आवश्यक तत्व प्राप्त कर सकते हैं।
4. वर्मी कम्पोस्ट के प्रयोग से मिट्टी भुरभुरी हो जाती है जिससे उसमें पोषक तत्व व जल संरक्षण की क्षमता बढ़ जाती है व हवा का आवागमन भी मिट्टी में ठीक रहता है।
5. वर्मी कम्पोस्ट क्योंकि कूड़ा-करकट, गोबर व फसल अवशेषों से तैयार किया जाता है अतः गन्दगी में कमी करता है तथा पर्यावरण को सुरक्षित रखता है।
6. वर्मी कम्पोस्ट टिकाऊ खेती के लिये बहुत ही महत्त्वपूर्ण है तथा यह जैविक खेती की दिशा में एक नया कदम है। इस प्रकार की प्रणाली प्राकृतिक प्रणाली और आधुनिक प्रणाली जो कि रासायनिक उर्वरकों पर आधारित है, के बीच समन्वय और सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है।
वर्मी कम्पोस्ट जैविक खाद का उपयोग विभिन्न फसलों में अलग-अलग मात्रा में किया जाता है। खेती की तैयारी के समय 2.5 से 3.0 टन प्रति हेक्टेयर उपयोग करना चाहिए। खाद्यान्न फसलों में 5.0 से 6.0 टन प्रति हेक्टेयर मात्रा का उपयोग करें। फल वृक्षों में आवश्यकतानुसार 1.0 से 10 किग्रा./पौधा वर्मी कम्पोस्ट उपयोग करें तथा किचन, गार्डन और गमलों में 100 ग्राम प्रति गमला खाद का उपयोग करें तथा सब्जियों में 10-12 टन/हेक्टेयर वर्मी कम्पोस्ट का उपयोग करें।
अपघटित दलहनी अथवा अदलहनी हरे पौधों या उनके भागों को जब भूमि की नाइट्रोजन अथवा जीवांश की मात्रा बढ़ाने के लिये खेत में दबाया जाता है तो यही हरी खाद देना कहलाता है। यह क्रिया भूमि की संरचना के सुधार, जीवांश की मात्रा बढ़ाने तथा पोषक तत्व देने के लिये की जाती है। भूमि को इसी प्रकार उपजाऊ बनाने का कार्य भारतीय किसान यद्यपि प्राचीन काल से ही करते आ रहे हैं तथा भारत में हरी खाद के नियमित प्रयोग का प्रचार चाय और कॉफी के यूरोपीय मालिकों ने किया।
हरी खाद के बदले अधिक आय देने वाली किसी अन्य फसल को उगाने की चाहत से हरी खाद का प्रचलन कम हो गया है। साथ ही अच्छे किस्म के बीजों की अनुपलब्धता, सिंचाई जल का अभाव, श्रमिकों की कमी तथा कम समय इसके प्रचलन में मुख्य बाधाएँ हैं। हरी खाद के प्रयोग से 40-60 किग्रा. प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन की बचत की जा सकती है। आजकल हरी खाद की ओर अब फिर ध्यान आकृष्ट हुआ है जिसके फलस्वरूप भारत में लगभग 67 हजार हेक्टेयर जमीन पर हरी खाद उगाई जा रही है। सनई एवं ढैंचा भारत की सर्वाधिक प्रचलित खादें है तथा सेम, लोबिया और बरसीम आदि को भी कभी-कभी हरी खाद के रूप में प्रयोग करते हैं। हरी खाद मृदा की भौतिक दशा सुधार के साथ-साथ पोषक तत्व भी प्रदान करती है।
भारत में फसल अवशेषों और औद्योगिक अवशिष्टों जैसे धान का पुआल, गेहूँ का भूसा, धान का छिलका, गन्ने के अवशेष आलू के डंठल, अखाध सब्जियाँ, चाय, तम्बाकू तथा कपास अवशिष्ट, प्रेसमड, वन का कूड़ा-कचरा तथा जलकुम्भी आदि के कृषि में प्रयोग की बहुत सम्भावनाएँ हैं। कम नाइट्रोजन की मात्रा वाले फसल अवशेष जिनका कार्बन तथा नाइट्रोजन अनुपात विस्तृत होता है जैसे अनाजों तथा अन्य गैर दलहनी फसल अवशेषों को जमीन में मिलाने पर थोड़े समय के लिये घुलनशील नाइट्रोजन का स्थायीकरण हो जाता है। जिससे पौधों को नाइट्रोजन की उपलब्धता कम हो जाती है। यदि यही फसल अवशेष फसल की बुआई से तीन-चार सप्ताह पूर्व जमीन में मिला दिये जाएँ तो नाइट्रोजन स्थायीकरण की सम्भावना भी कम हो जाती है। अधिकतम पादप सुलभ नाइट्रोजन 25-30 दिन तक स्थायीकृत होते हैं। यदि इस समय को छोड़कर फसल की बुआई की जाये तो इस फसल के अलावा अगली फसल को भी फायदा होगा। परन्तु सघन कृषि क्षेत्रों में बहुफसलीय फसल चक्र में फसल अवशेषों को जमीन में मिलाने तथा सड़ाने के लिये दो फसलों के बीच शायद ही समय मिल पाता है। ट्रॉपीकल और सबट्रॉपीकल दशा में द्विफसलीय फसल चक्र में दो फसलों की बुआई के बीच एक-दो महीने का खाली समय मिल जाता है। यह समय उपलब्ध फसल अवशेषों को जमीन में मिलाने के लिये उपयुक्त होता है।
भूमि की किस्म तथा जलवायु की अवस्थाओं के अनुरूप भारत के विभिन्न प्रान्तों मे कितने ही तरीके हरी खाद के लिये अपनाए जाते हैं। हरी खाद मुख्यतः दो प्रकार से दी जाती है।
इस विधि में हरी खाद की फसल उसी खेत में पैदा की जाती है तथा भूमि में दबाई जाती है जिसमे हरी खाद की फसल शुद्ध अथवा मिश्रित रूप से मुख्य फसल के साथ बोई जा सकती है। इस विधि में हरी खाद उन्हीं क्षेत्रों में दी जाती है जहाँ भूमि गहरी होती है तथा वर्षा पर्याप्त मात्रा में होती है अथवा सिंचाई का कोई प्रबन्ध होता है। सीटू विधि से हरी खाद की सफलता तथा उससे आशातीत लाभ प्राप्त करने के लिये अधिक नमी की आवश्यकता पड़ती है।
यदि नमी का अभाव होगा तो फसल की बढ़वार और उसकी फिर भूमि में सड़न क्रिया नही हो सकती है। बिना सड़ी हुई खाद फसल को कोई लाभ नही पहुँचा सकती बल्कि उल्टा खेत में दीमक आदि बढ़ने का भय रहता है। सीटू पद्धति से हरी खाद देने के लिये सनई, ढैचा, ग्वार, उड़द, लोबिया, बरसीम, लूसर्न, सैजी आदि फसल का उपयोग किया जाता है।
वैसे तो यह पद्धति पर्याप्त वर्षा अथवा सिंचाई की सुविधा वाले क्षेत्रों में भी अपनाई जा सकती है। परन्तु उन क्षेत्रों में जहाँ भूमि उथली होती है अथवा भूमि में 10 से 15 सेमी. की गहराई पर कोई सख्त तह हो अथवा पहाड़ी क्षेत्रों में जहाँ भूमि बहुत पतली तह के रूप में होती है तथा न्यून वर्षा वाले क्षेत्रों में विशेष रूप से हरी खाद इस विधि से दी जाती है। इस विधि में पेड़ों तथा झाड़ियों के पत्ते तथा कोमल टहनियाँ लाकर खेत में दबाई जाती है। ये कोमल भाग भूमि में थोड़ी नमी होने पर सड़ जाते है।
भूमि, जलवायु, नमी तथा उद्देश्य को ध्यान में रखकर निम्न विशेषताओं वाली फसलों का चुनाव करना चाहिए।
1. फसल शीघ्र उगने वाली हो। सनई, कोदोनीश, उड़द, मूँग व लोबिया आदि फसलों में शीघ्र वृद्धि करने का गुण होता है। शीघ्र वृद्धि करने वाली जातियों के बोने से फसल चक्र में आसानी से स्थापना हो जाती है अन्यथा अधिक समय लेने वाली हरी खाद की फसल से एक मुख्य फसल छोड़नी पड़ सकती है जिससे किसान को एस फसल का नुकसान उठाना पड़ सकता है।
2. फसलों का डालपात मुलायम हो। मुलायम डालपात तथा रेशाविहिन फसलों का अपघटन शीघ्र होता है तथा ऐसी फसलों के अपघटन के लिये रेशेदार फसलों की अपेक्षा कम पानी की आवश्यकता होती है। हरी खाद के लिये मुलायम एवं रेशाविहिन फसलों का, ऐसे क्षेत्रों मे जहाँ कम वर्षा या पानी का अभाव हो, विशेष महत्त्व की है। जैसे लोबिया, उड़द, मोठ, कुल्थी, कदोजीरा, बरसीम, मुलायम डालपात वाली हरी खाद की फसलें है।
3. फसलों में अधिक शाखा व पत्ती हो। इससे भूमि में अधिक नाइट्रोजन मिलाई जा सकती है। अधिक डालपात वाली फसल का अपघटन भी जल्दी हो जाता है। ढैचा, वाकुची, लोबिया, कुदूजवाइन इस शर्त पर पूर्ति करने वाली फसलें है।
4. फसलों की जड़ें काफी गहरी हो। गहरी जड़ों वाली फसलें भूमि के नीचे तक घुसकर उसे भुरभुरा बना देती है तथा भूमि की निचली तह में उपस्थित भोजन तत्वों का उपयोग कर लेती है, जो बाद में हरी खाद के रूप में उपरी सतह में ही आ जाती है। यह बात भारी तथा बलुई किस्म की मिट्टियों में विशेष महत्त्व रखती है, क्योंकि हल्की भूमियों में घुलनशील तत्व नीचे चले जाते हैं तथा भारी भूमियों में जल निक्षालन तथा रिसाव बहुत कम होता है। सनई, ढैचा दोनों ही गहरी जड़ों वाली फसलें हैं।
5. बाजरा, ज्वार, मक्का आदि को जो दलहनी फसलें नहीं है फिर भी हरी खाद के लिये प्रयोग में किया जा सकता है। लेकिन अच्छा यही रहता है कि हरी खाद के रूप में किसी दाल वाली फसल को ही प्रयुक्त किया जाये। दलहनी फसलों की जड़ों में ग्रंथियाँ होती है। जिनमें उपस्थित अणुजीव राइजोबियम वायुमण्डल से नाइट्रोजन को भूमि में संचय एवं स्थिर करने की क्षमता रखते हैं।
6. हरी खाद के लिये फसलें सूखा अवरोधी रोग व कीट अवरोधी प्रचुर मात्रा में बीज पैदा करने वाली, अधिक वर्षा आदि से उत्पन्न होने वाली दशाओं को सहन करने वाली होनी चाहिए।
7. हरी खाद के लिये ऐसी फसलों का चुनाव किया जाये जो कृषकों के लिये सस्ती हो तथा दूसरी प्रयोग में भी प्रयुक्त होती हो। उदाहरण के लिये सनई की फसल खाद, रेशे, बीज, चारा आदि के उपयोग की है।
1. भूमि को जीवांश मिलता है जिससे लाभकारी जीवाणुओं की क्रियाशीलता बढ़ती है।
2. हरी खाद के पौधों द्वारा भूमि की गहरी सतह से लिये गए पोषक तत्व भूमि की ऊपरी सतह में आ जाते हैं।
3. इससे भूमि की संरचना में सुधार होता है।
4. भूमि में जल शोषण व धारण शक्ति बढ़ती है जिससे भूमि कटाव रोकने में सहायता मिलती है।
5. गहरी खाद के लिये जब दलहनी फसलें उगाई जाती हैं तो उनके द्वारा वायुमंडल से स्वतंत्र नाइट्रोजन भूमि में इकट्ठी हो जाती है।
6. कुछ अनुपलब्ध तत्व जैसे फॉस्फोरस, कैल्शियम, पोटाश, मैग्नीशियम तथा लोहा आदि पोषक तत्वों की उपलब्धि बढ़ जाती है।
7. खरपतवार नियंत्रित होते है।
8. क्षारीय एवं लवणीयता वाली भूमियों में सुधार होता है।
9. मृदा संरचना में सुधार होता है।
10. फसलों के उत्पादन में वृद्धि होती है।
1. जिन क्षेत्रों में सिंचाई के साधन उपलब्ध हो वहाँ पर यदि समय पर वर्षा न हो तो सिंचाई करके हरी खाद की फसल बोयी जा सकती है यदि सिंचाई के साधनों का अभाव हो तो पहली वर्षा होते ही खेत जोतकर बीज की बुआई कर देनी चाहिए।
2. जिन खेतों में हरी खाद की फसल बोयी जाती हो वहाँ यह बात सुनिश्चित कर लेनी चाहिए कि आगामी फसल तब बोयी जाये जब हरी खाद की फसल पूर्ण रूप से सड़ चुकी हो। यदि हरी खाद आगामी फसल के लिये अस्थायी रूप से प्राप्त नाइट्रोजन की मात्रा में ह्रास हो सकता है। जिसका मुख्य फसल की प्रारम्भिक वृद्धि पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। वैज्ञानिकों का मत यह है कि ऐसी दशा में बाद का सड़ाव करने वाले बैक्टीरिया खेत में उपस्थित प्राप्त नाइट्रोजन को खा जाते हैं।
3. गैर दलहनी हरी खाद की फसलों में नाइट्रोजनीय खाद आवश्यकता के अनुसार प्रयोग करना चाहिए जबकि दाल वाली फसलों में 2 में 4 क्विंटल सुपरफास्फेट प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए। सुपरफास्फेट के प्रयोग से दाल वाली फसलों को बड़ा लाभ पहुँचता है। इसके लिये प्रयोग से इन फसलों की जड़ों में उपस्थित ग्रन्थियाँ अधिक संख्या में बनती है और उनका आकार भी बड़ा होता है। जिसके फलस्वरूप भूमि में अधिक नाइट्रोजन स्थिर होती है। प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका है कि मुख्य फसल को सुपर फॉस्फेट देने से जितना लाभ होता है उससे कहीं अधिक लाभ तब होता है जब सुपरफॉस्फेट हरी खाद की फसल में दिया जाता है।
4. हरी खाद का समुचित लाभ तभी प्राप्त किया जा सकता है जब उसकी वृद्धि तथा सड़ाव के लिये प्रयाप्त नमी खेत में हो। जिन क्षेत्रों में वर्षा ऋतु में 100 से 150 सेमी. वर्षा हो जाती है। वहीं हरी खाद की सभी फसलें बिना सिंचाई के पैदा की जा सकती है। इसके विरुद्ध 50 से 60 सेमी. से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधा के बिना हरी खाद नहीं होनी चाहिए। प्रयाप्त वर्षा वाले क्षेत्रों में कभी-कभी लम्बी अवधि तक सूखा पड़ जाता है ऐसी स्थिति में फसल की वृद्धि को प्रोत्साहित करने के लिये या अगर फसल खेत मे दबी पड़ी हो तो उसके अपघटन को सुचारू रुप से चलाने के लिये सिंचाई करनी आवश्यक होती है। जिस हरी खाद में उर्वरकों का प्रयोग किया गया हो, उनमें तो नमी का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
5. हरी खाद को मिट्टी पलटने वाले लोहिया हल से मिट्टी की मोटी तह से अच्छी तरह दबा देना चाहिए। समान रूप से विघटन के लिये यह आवश्यक है कि जड़ों के पास पत्तियों तथा शाखाओं को दबाया जाये। शुष्क क्षेत्रों में हरी खाद की छोटी अवस्था में ही जब काफी कोमल हो दबा देना चाहिए। पर्याप्त वर्षा वाले अथवा सिंचित इलाकों में फसल को तब दबाना चाहिए जब उसमें सबसे अधिक कार्बनिक पदार्थ हो हर दशा मे यह फसल मुख्य फसल की बुआई से एक से डेढ महीने पहले आवश्यक रूप से खेत में जोत देनी चाहिए।
1. जलवायु - फसल एवं उत्तम हरी खाद के लिये नम जलवायु का होना आवश्यक है। फसलों की वृद्धि व विच्छेदन के लिये कम-से-कम 60 सेमी. वर्षा का होना आवश्यक है।
2. भूमि का चुनाव - चिकनी व लवणीय भूमि के लिये ढैचा, बरसीम व बलुई व कम उर्वरकता वाली भूमियों के लिये सनई, मूँग, उदड़, ज्वार आदि उपयुक्त फसलें रहती हैं।
3. भूमि की तैयारी - हरी खाद की फसलों को बोने हेतु खेती की विशेष तैयारी की आवश्यकता होती है। आवश्यकता होने पर 1 या 2 जुताई कर खेत तैयार किया जा सकता है।
4. बोनी का समय - खरीफ फसलें जैसे सनई, ढैचा, उड़द, लोबिया, ज्वार, मूँग आदि को वर्षा आरम्भ होते ही बोनी की जाती है जिन क्षेत्रों में सिंचाई के साधन उपलब्ध हैं वहाँ पर रबी की फसलों को काट कर अप्रैल, मई, जून में खेत का पलेवा करके हरी खाद की फसलों की बुआई कर सकते है। रबी की फसले मटर, बरसीम, मेथी आदि को अक्टूबर मसूर आदि को दिसम्बर तक व मेथी, सैजी की बुआई जनवरी तक अन्य फसलों की कटाई करने के बाद करते हैं।
5. बीज दर - हरी खाद के लिये बोयी जाने पर प्रति इकाई क्षेत्र अधिक बीज बोया जाता है जैसे सनई 40, ढैचा 30, ज्वार 20, लोबिया 50, मटर 100, सैजी 30, मूँग व उड़द 30 व बरसीम की बीज 20 कि.ग्रा./हे. की दर से उपयोग किया जाता है।
6. सिंचाई - जहाँ पर सिंचाई उपलब्ध हो वहाँ पर फसल की आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए।
7. फसल पलटाई का समय - फसल की विशेष अवस्था पन पलटाई करने से भूमि की सबसे अधिक नत्रजन व जीवांश पदार्थ प्राप्त होता है। इस अवस्था के पूर्व या बाद में पलटाई करना लाभदायक नहीं होता है। यह विशेष अवस्था में हो और फसल में फूल निकलने प्रारम्भ हो गए हों इस समय पर वानस्पतिक वृद्धि अधिक होती है तथा पौधों की शाखाएँ व पत्तियाँ मुलायम होती हैं। इस अवस्था में कार्बन नत्रजन अनुपात भी कम होता है। सनई की फसल में 50 दिन बाद ढैचा, 40 दिन बाद यह अवस्था आती है। बरसीम आदि की फसलों से 2-3 कटाई के पश्चात फसल की खेती में दबा सकते हैं।
केंचुओं का महत्त्व
केंचुआ कृषि में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान भूमि सुधार के रूप में देता है। इनकी क्रियाशीलता मृदा में स्वतः चलती रहती है। प्राचीन समय में प्रायः भूमि में केंचुए पाये जाते थे तथा वर्षा के समय भूमि पर देखे जाते थे। परन्तु आधुनिक खेती में अधिक रासायनिक खादों तथा कीटनाशकों के लगातार प्रयोगों से केंचुओं की संख्या में भारी कमी आई है। जिस भूमि में केंचुए नहीं पाये जाते हैं उनसे यह स्पष्ट होता है कि मिट्टी अब अपनी उर्वरा शक्ति खो रही है तथा उसका ऊसर भूमि के रूप में परिवर्तन हो रहा है।
केंचुआ मिट्टी में पाये जाने वाले जीवों में सबसे प्रमुख है। ये अपने आहार के रूप में मिट्टी तथा कच्चे जीवांश को निगलकर अपनी पाचन नलिका से गजारते हैं जिससे वह महीन कम्पोस्ट में परिवर्तित हो जाते हैं और अपने शरीर से बाहर छोटी-छोटी कास्टिग्स के रूप में निकालते हैं। इसी कम्पोस्ट को वर्मी कम्पोस्ट कहा जाता है। केंचुओं का प्रयोग कर व्यापारिक स्तर पर खेत पर ही कम्पोस्ट बनाया जाना सम्भव है। इस विधि द्वारा कम्पोस्ट मात्र 45 दिन में तैयार हो जाता है।
केंचुओं का पालन ‘कृमि संवर्धन‘ या ‘वर्मी कल्चर’ कहलाता है। अब तक केंचुओं की 4500 प्रजातियों विश्व के विभिन्न भागों में बताई जा चुकी हैं। केंचुए दो प्रकार के हैं- जलीय व स्थलीय।
आज केंचुओं की कुछ ऐसी प्रजातियाँ विकसित कर ली गई हैं जिनको पालकर आप प्रतिदिन के कूड़ा-करवट को अच्छी खाद ‘वर्मी कम्पोस्ट’ में बदल सकते हैं। यह खाद इतनी शक्तिशाली होती है कि इसमें पौधों द्वारा चाहे गए कभी पोषक तत्व भरपूर मात्रा में मौजूद होते हैं तथा पौधे इनको तुरन्त ग्रहण कर लेते हैं।
वर्मी कल्चर
वर्मीकल्चर लकड़ी के बॉक्स, प्लास्टिक के क्रेट, प्लास्टिक की बाल्टी अथवा ईंट व सीमेंट के छोटे टैंक में किया जा सकता है। यह एक कम गहरे गड्ढे में भी किया जा सकता है। वर्मीकल्चर के लिये 20 लीटर क्षमता की बाल्टी अथवा 45 सेमी.X45 सेमी.X30 सेमी. का लकड़ी का डिब्बा लिया जा सकता है। यदि गड्ढे अथवा टैंक में वर्मी कल्चर किया जाना है तो वह छायादार जगह में होना चाहिए और उस स्थान पर पानी एकत्र नहीं होना चाहिए।
वर्मीकल्चर हेतु उपयुक्त पात्र का चुनाव करने के बाद उसमें छोटे-छोटे छिद्र कर दिये जाते हैं ताकि उससे अतिरिक्त बाहर पानी निकल जाये। इसके बाद पात्र में वर्मी बैड तैयार किया जाता है। वर्मी बैड में सबसे नीचे वाले परत में छोटे-छोटे पत्थर ईंट के टुकड़े व मोटी रेत 3.5 सेमी. की मोटाई तक डाली जाती है। ताकि पानी का वहन ठीक प्रकार से हो। इसके बाद इसमें मिट्टी का एक परत दिया जाता है जो कम-से-कम 15 सेमी. मोटाई का होना चाहिए। फिर इसे अच्छी तरह गीला किया जाता है।
यदि सिर्फ एपीजेइक जाति अथवा एक्सोटिक केंचुए पाले जा रहे हैं तो मिट्टी के मोटे परत की आवश्यकता नहीं है, पर जब एपीजेइक और एनेसिक दोनों जाति के केंचुए एक साथ पाले जाते हैं तब मिट्टी का परत आवश्यक है। इसके लिये अपने आस-पास के परिसर से एकत्र किये गए करीब 100 केंचुए मिट्टी के परत में छोड़ दिये जाते हैं। इसके ऊपर ताजे गोबर के छोटे-छोटे लड्डू जैसे बनाकर रख दिये जाते हैं।
अब पूरे बॉक्स को लगभग 10 सेमी. मोटे सूखे कचरे की तह से ढँक दिया जाता है। इस प्रकार बने वर्मीबैड को जूट की थैली के आवरण से ढँक दिया जाता है। इस पर थोड़ा पानी छिड़क कर गीला किया जाता है। बहुत अधिक पानी डालना आवश्यक नहीं है। इस प्रकार 30 दिन तक वर्मीबैड में नमी रखना है और उसकी पक्षियों, मुर्गियों, मेंढक आदि से रक्षा करनी है। इस समय में केंचुओं का विकास और प्रजनन होता है।
केंचुओं को भोजन देना
30 दिन बाद 31वें दिन वर्मीबैड में थोड़ा-थोड़ा जैविक कचरा समान रूप से फैला सकते है कचरे की तह की मोटाई 5 सेमी से अधिक मोटी नहीं होनी चाहिए, अन्यथा कचरे के सड़ने से जो गर्मी उत्पन्न होगी उससे केंचुओं को नुकसान हो सकता है। एक सप्ताह में दो बार कचरा वर्मीबैड पर डाला जा सकता है। इस समय भी वर्मीबैड में 50-50 प्रतिशत नमी बनाए रखना आवश्यक है। 30 दिन तक इस प्रकार केंचुओं को भोजन देते हैं। 30 दिन बाद भोजन देना बन्द कर दें और केंचुओं के बॉक्स को ढँककर रख दें। ढँक कर रखना केंचुओं की सुरक्षा के लिये अनिवार्य है पर इस तरह से ढँके कि बॉक्स में हवा का वहन ठीक प्रकार से होता रहे।
खाद निकालना
भोजन देने के 30-40 दिन बाद केंचुओं द्वारा पूर्ण जैविक पदार्थ/कचरा काले रंग के दानेदार वर्मीकास्ट में बदल जाता है। वर्मीकम्पोस्ट, वर्मीकास्ट एवं पूर्णतः सड़े हुए कचरे की खाद का मिश्रण होता है। वर्मीकम्पोस्ट बन जाने के बाद केंचुओं के कल्चर बॉक्स में पानी देना बन्द कर दिया जाता है। नमी की कमी की वजह से केंचुए बॉक्स में नीचे की ओर चले जाते हैं, इस समय खाद को ऊपर से निकालकर अलग से एक पॉलिथीन पर छोटे ढेर के रूप में निकाल लिया जाता है। इस ढेर को भी थोड़ी देर धूप में रखा जाता है ताकि केंचुए नीचे की ओर चले जाएँ। ऊपर का कम्पोस्ट अलग कर लिया जाता है। नीचे के कम्पोस्ट को केंचुओं सहित पुनःकल्चर बॉक्स में डालकर दूसरा चक्र शुरू कर दिया जाता है।
अधिक मात्रा में केंचुआ खाद का निर्माण
कल्चर बॉक्स में केंचुए को बढ़ाने के बाद अधिक मात्रा में कचरे का उपयोग करके वर्मीकम्पोस्ट बनाया जा सकता है इसके लिये एपीजेइक किस्म के केंचुए उपयोग में लाये जा सकते हैं।
अधिक मात्रा में खाद बनाने के लिये सर्वप्रथम छायादार स्थान का चुनाव करना आवश्यक है। यदि खेत अथवा बाग-बगीचे में छायादार वृक्षों की कतारें है तो उनके नीचे केंचुआ खाद के लिये वर्मीबैड बनाए जा सकते हैं। अन्यथा खेत के किनारे पर 6-8 फीट ऊँचे बाँस अथवा डंडे गाड़कर ऊपर घास का छप्पर डालकर कृत्रिम शेड बनाया जा सकता है। अधिक मात्रा में खाद बनाने के लिये वर्मीबैड की चौड़ाई 3 फीट से अधिक एवं ऊँचाई 1 फीट से अधिक नहीं होनी चाहिए। लम्बाई स्थान एवं कचरे की उपलब्धता के आधार पर कितनी भी हो सकती है किन्तु वर्मीबैड बनाने का स्थान धरातल से थोड़े ऊँचाई वाले स्थान पर होना चाहिए ताकि आस-पास का पानी उसमें एकत्र न हो सकें।
वर्मीबैड बनाना
जमीन पर वर्मीबैड बनाने के लिये सर्वप्रथम सूखी डंठलों एवं कचरे को बैड की लम्बाई-चौड़ाई के आकार में बिछा दें। इस पर सब प्रकार के मिश्रित कचरे, जिसमें सूखा कचरा, हरा कचरा, किचन वेस्ट, घास, राख इत्यादि मिश्रित हो, उसकी करीब 4 इंच मोटी परत बिछा दें। इस पर अच्छी तरह पानी देकर उसे गीला कर दें। इसके ऊपर सड़ा हुआ अथवा सूखे गोबर के खाद की 3-4 इंच मोटी परत बिछा दें। इसे भी पानी से गीला कर दें।
पानी का हल्का-हल्का छिड़काव करना है बहुत अधिक पानी डालना आवश्यक नहीं। इस पर 1 वर्गमीटर में 100 के हिसाब से स्थानीय अथवा एक्सोटिक प्रजाति के जो भी केंचुए उपलब्ध हो वे छोड़े जा सकते हैं। इसके ऊपर पुनः हरी पत्तियों का 2-3 इंच पतला परत देकर पूरे वर्मीबैड को सूखी घास अथवा टाट की बोरी से ढँक दिया जाता है। मेंढक, मुर्गियों अथवा अन्य पक्षियों एवं लाल चीटिंयों से वर्मीबैड को बचाना आवश्यक है।
इस प्रकार वर्मीबैड बनाने के बाद पुनः कचरा डालने की आवश्यकता नहीं है। इस वर्मीबैड से कुछ दूरी पर इसी तरह कचरा एकत्र करके दूसरा वर्मीबैड तैयार कर सकते हैं। करीब 40-60 दिन बाद जब पहले वर्मीबैड खाद तैयार हो जाता है, तब उसमें पानी देना बन्द कर देते हैं व कल्चर बॉक्स की तरह ही इसमें से धीरे-धीरे ऊपर का खाद निकाल लिया जाता है। नीचे की तह खाद जिसमें सारे केंचुए होते हैं उसे दूसरे वर्मीबैड पर डाल दिया जाता है ताकि उसमें वर्मीकम्पोस्ट की क्रिया आरम्भ हो जाये। ताजे निकाले गए वर्मीकम्पोस्ट के ढेर को भी वर्मीबैड के नजदीक ही रखा जाता है व उसमें पानी देना बन्द कर देते हैं। नमी की कमी की वजह से उसमें से केंचुए धीरे-धीरे नजदीक के वर्मीबैड में चले जाते हैं वर्मीकम्पोस्ट खेत में डालने के लिये तैयार हो जाता है। इस खाद में जो केंचुए के छोटे-छोटे अंडे व बच्चे होते हैं उनसे जमीन में प्राकृतिक रूप से केंचुओं की संख्या बढ़ती है।
यदि घर अथवा खेत में थोड़ा-थोड़ा कचरा एकत्र होता है तब बायोडंग पद्धति के अथवा चार गड्ढे के चक्रीय तंत्र का प्रयोग करके भी अच्छा वर्मीकम्पोस्ट तैयार किया जा सकता है।
यदि कचरे व स्थान की उपलब्धता अधिक हो व बड़ी मात्रा में कम्पोस्ट तैयार करना हो तब छायादार जगह में पहले बायोडंग बनाकर एक महीने बाद वर्मीबैड तैयार करके खाद बनाया जा सकता है। इस पद्धति से व्यावसायिक स्तर पर भी खाद बनाई जा सकता है।
वर्मीकम्पोस्ट में विभिन्न तत्वों की मात्रा
वर्मीकम्पोस्ट में साधारण मृदा की तुलना में 5 गुना अधिक नाइट्रोजन, 7 गुना अधिक फॉस्फेट, 7 गुना अधिक पोटाश, 2 गुना अधिक मैग्नीशियम व कैल्शियम होते हैं। प्रयोगशाला जाँच करने पर विभिन्न पोषक तत्वों की मात्रा इस प्रकार पाई जाती है-
नाइट्रोजन 1.0-2.25 प्रतिशतफास्फोरस 1.0-1.50 प्रतिशतनाइट्रोजन 2.5-3.00 प्रतिशत
वर्मीवाश बनाना
यह पत्तियों पर छिड़कने के लिये छिड़काव के रूप में तैयार किया जाता है। यह 10-25 लीटर धारण क्षमता वाली एक प्लास्टिक की बाल्टी अथवा मिट्टी का रंजन/मटका जिसमें टोटी लगी हो, उसमें बनाया जा सकता है। वर्मीवाश बनाने के लिये बाल्टी को निम्न प्रकार से भरा जाता है–
पहली परत -- 2”-3” ईंट व पत्थरदूसरी परत -- 2” रेत तीसरी परत -- 6” – 9” मिट्टी व पुराना कम्पोस्टचौथी परत -- 2” हरी घास, पत्तियाँ इत्यादिइस प्रकार बाल्टी भरकर उसमें 100 से 120 केंचुए छोड़ दिये जाते हैं। एक माह बाद इस बाल्टी के ऊपर एक छोटे मटके में पानी भरकर उसमें बारीक-बारीक छेद करके लटका दिया जाता है, जिसमें कपड़े की चिन्दियों के माध्यम से पानी रिसता रहता है। एक माह में केंचुए जो बाल्टी के ऊपर से नीचे की ओर बारीक-बारीक चालन करते हैं उनमें बारीक-बारीक रिक्तिकाएँ बाल्टी में भरे कम्पोस्ट में बन जाती है। ऊपर बँधे मटके में रिसता पानी से रिक्तिकाएँ बाल्टी में भरे कम्पोस्ट में बन जाती है। ऊपर बँधे मटके से रिसता पानी जब रिक्तिकाओं से गुजरता है तब उसमें केंचुए के शरीर से मूत्र एवं पसीने के रूप में छूटने वाला कोलाइडल द्रव्य मिल जाता है, जिसमें कई उपयोगी वृद्धिकारक हार्मोन्स एवं पोषक तत्व होते हैं। यह पानी बाल्टी के नीचे लगी टोंटी से 24 घंटे बाद खोलकर एकत्र कर लिया जाता है, इसे वर्मीवाश कहते हैं। यह कीट नियंत्रण में भी सहायक होता है।
वर्मी कम्पोस्ट के लाभ
वर्मी कम्पोस्ट एक अच्छी किस्म की खाद है तथा साधारण कम्पोस्ट या गोबर की खाद से ज्यादा लाभदायक साबित हुई है। इसके प्रयोग करने में निम्नलिखित लाभ है–
1. वर्मी कम्पोस्ट को भूमि में बिखेरने से भूमि भुरभुरी एवं उपजाऊ बनती है। इससे पौधों की जड़ों के लिये उचित वातावरण बनता है। जिससे उनका अच्छा विकास होता है।
2. भूमि एक जैविक माध्यम है तथा इसमें अनेक जीवाणु होते हैं जो इसको जीवन्त बनाए रखते हैं इन जीवाणुओं को भोजन के रूप में कार्बन की आवश्यकता होती है। वर्मी कम्पोस्ट मृदा से कार्बनिक पदार्थों की वृद्धि करता है तथा भूमि में जैविक क्रियाओं को निरन्तरता प्रदान करता है।
3. वर्मी कम्पोस्ट में आवश्यक पोषक तत्व प्रचुर व सन्तुलित मात्रा में होते हैं। जिससे पौधे सन्तुलित मात्रा में विभिन्न आवश्यक तत्व प्राप्त कर सकते हैं।
4. वर्मी कम्पोस्ट के प्रयोग से मिट्टी भुरभुरी हो जाती है जिससे उसमें पोषक तत्व व जल संरक्षण की क्षमता बढ़ जाती है व हवा का आवागमन भी मिट्टी में ठीक रहता है।
5. वर्मी कम्पोस्ट क्योंकि कूड़ा-करकट, गोबर व फसल अवशेषों से तैयार किया जाता है अतः गन्दगी में कमी करता है तथा पर्यावरण को सुरक्षित रखता है।
6. वर्मी कम्पोस्ट टिकाऊ खेती के लिये बहुत ही महत्त्वपूर्ण है तथा यह जैविक खेती की दिशा में एक नया कदम है। इस प्रकार की प्रणाली प्राकृतिक प्रणाली और आधुनिक प्रणाली जो कि रासायनिक उर्वरकों पर आधारित है, के बीच समन्वय और सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है।
उपयोग विधि
वर्मी कम्पोस्ट जैविक खाद का उपयोग विभिन्न फसलों में अलग-अलग मात्रा में किया जाता है। खेती की तैयारी के समय 2.5 से 3.0 टन प्रति हेक्टेयर उपयोग करना चाहिए। खाद्यान्न फसलों में 5.0 से 6.0 टन प्रति हेक्टेयर मात्रा का उपयोग करें। फल वृक्षों में आवश्यकतानुसार 1.0 से 10 किग्रा./पौधा वर्मी कम्पोस्ट उपयोग करें तथा किचन, गार्डन और गमलों में 100 ग्राम प्रति गमला खाद का उपयोग करें तथा सब्जियों में 10-12 टन/हेक्टेयर वर्मी कम्पोस्ट का उपयोग करें।
हरी खाद
अपघटित दलहनी अथवा अदलहनी हरे पौधों या उनके भागों को जब भूमि की नाइट्रोजन अथवा जीवांश की मात्रा बढ़ाने के लिये खेत में दबाया जाता है तो यही हरी खाद देना कहलाता है। यह क्रिया भूमि की संरचना के सुधार, जीवांश की मात्रा बढ़ाने तथा पोषक तत्व देने के लिये की जाती है। भूमि को इसी प्रकार उपजाऊ बनाने का कार्य भारतीय किसान यद्यपि प्राचीन काल से ही करते आ रहे हैं तथा भारत में हरी खाद के नियमित प्रयोग का प्रचार चाय और कॉफी के यूरोपीय मालिकों ने किया।
हरी खाद के महत्त्व
हरी खाद के बदले अधिक आय देने वाली किसी अन्य फसल को उगाने की चाहत से हरी खाद का प्रचलन कम हो गया है। साथ ही अच्छे किस्म के बीजों की अनुपलब्धता, सिंचाई जल का अभाव, श्रमिकों की कमी तथा कम समय इसके प्रचलन में मुख्य बाधाएँ हैं। हरी खाद के प्रयोग से 40-60 किग्रा. प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन की बचत की जा सकती है। आजकल हरी खाद की ओर अब फिर ध्यान आकृष्ट हुआ है जिसके फलस्वरूप भारत में लगभग 67 हजार हेक्टेयर जमीन पर हरी खाद उगाई जा रही है। सनई एवं ढैंचा भारत की सर्वाधिक प्रचलित खादें है तथा सेम, लोबिया और बरसीम आदि को भी कभी-कभी हरी खाद के रूप में प्रयोग करते हैं। हरी खाद मृदा की भौतिक दशा सुधार के साथ-साथ पोषक तत्व भी प्रदान करती है।
भारत में फसल अवशेषों और औद्योगिक अवशिष्टों जैसे धान का पुआल, गेहूँ का भूसा, धान का छिलका, गन्ने के अवशेष आलू के डंठल, अखाध सब्जियाँ, चाय, तम्बाकू तथा कपास अवशिष्ट, प्रेसमड, वन का कूड़ा-कचरा तथा जलकुम्भी आदि के कृषि में प्रयोग की बहुत सम्भावनाएँ हैं। कम नाइट्रोजन की मात्रा वाले फसल अवशेष जिनका कार्बन तथा नाइट्रोजन अनुपात विस्तृत होता है जैसे अनाजों तथा अन्य गैर दलहनी फसल अवशेषों को जमीन में मिलाने पर थोड़े समय के लिये घुलनशील नाइट्रोजन का स्थायीकरण हो जाता है। जिससे पौधों को नाइट्रोजन की उपलब्धता कम हो जाती है। यदि यही फसल अवशेष फसल की बुआई से तीन-चार सप्ताह पूर्व जमीन में मिला दिये जाएँ तो नाइट्रोजन स्थायीकरण की सम्भावना भी कम हो जाती है। अधिकतम पादप सुलभ नाइट्रोजन 25-30 दिन तक स्थायीकृत होते हैं। यदि इस समय को छोड़कर फसल की बुआई की जाये तो इस फसल के अलावा अगली फसल को भी फायदा होगा। परन्तु सघन कृषि क्षेत्रों में बहुफसलीय फसल चक्र में फसल अवशेषों को जमीन में मिलाने तथा सड़ाने के लिये दो फसलों के बीच शायद ही समय मिल पाता है। ट्रॉपीकल और सबट्रॉपीकल दशा में द्विफसलीय फसल चक्र में दो फसलों की बुआई के बीच एक-दो महीने का खाली समय मिल जाता है। यह समय उपलब्ध फसल अवशेषों को जमीन में मिलाने के लिये उपयुक्त होता है।
हरी खाद देने की विधियाँ
भूमि की किस्म तथा जलवायु की अवस्थाओं के अनुरूप भारत के विभिन्न प्रान्तों मे कितने ही तरीके हरी खाद के लिये अपनाए जाते हैं। हरी खाद मुख्यतः दो प्रकार से दी जाती है।
हरी खाद की सीटू विधि
इस विधि में हरी खाद की फसल उसी खेत में पैदा की जाती है तथा भूमि में दबाई जाती है जिसमे हरी खाद की फसल शुद्ध अथवा मिश्रित रूप से मुख्य फसल के साथ बोई जा सकती है। इस विधि में हरी खाद उन्हीं क्षेत्रों में दी जाती है जहाँ भूमि गहरी होती है तथा वर्षा पर्याप्त मात्रा में होती है अथवा सिंचाई का कोई प्रबन्ध होता है। सीटू विधि से हरी खाद की सफलता तथा उससे आशातीत लाभ प्राप्त करने के लिये अधिक नमी की आवश्यकता पड़ती है।
यदि नमी का अभाव होगा तो फसल की बढ़वार और उसकी फिर भूमि में सड़न क्रिया नही हो सकती है। बिना सड़ी हुई खाद फसल को कोई लाभ नही पहुँचा सकती बल्कि उल्टा खेत में दीमक आदि बढ़ने का भय रहता है। सीटू पद्धति से हरी खाद देने के लिये सनई, ढैचा, ग्वार, उड़द, लोबिया, बरसीम, लूसर्न, सैजी आदि फसल का उपयोग किया जाता है।
हरी पत्ती की हरी खाद
वैसे तो यह पद्धति पर्याप्त वर्षा अथवा सिंचाई की सुविधा वाले क्षेत्रों में भी अपनाई जा सकती है। परन्तु उन क्षेत्रों में जहाँ भूमि उथली होती है अथवा भूमि में 10 से 15 सेमी. की गहराई पर कोई सख्त तह हो अथवा पहाड़ी क्षेत्रों में जहाँ भूमि बहुत पतली तह के रूप में होती है तथा न्यून वर्षा वाले क्षेत्रों में विशेष रूप से हरी खाद इस विधि से दी जाती है। इस विधि में पेड़ों तथा झाड़ियों के पत्ते तथा कोमल टहनियाँ लाकर खेत में दबाई जाती है। ये कोमल भाग भूमि में थोड़ी नमी होने पर सड़ जाते है।
हरी खाद की फसल का चुनाव
भूमि, जलवायु, नमी तथा उद्देश्य को ध्यान में रखकर निम्न विशेषताओं वाली फसलों का चुनाव करना चाहिए।
1. फसल शीघ्र उगने वाली हो। सनई, कोदोनीश, उड़द, मूँग व लोबिया आदि फसलों में शीघ्र वृद्धि करने का गुण होता है। शीघ्र वृद्धि करने वाली जातियों के बोने से फसल चक्र में आसानी से स्थापना हो जाती है अन्यथा अधिक समय लेने वाली हरी खाद की फसल से एक मुख्य फसल छोड़नी पड़ सकती है जिससे किसान को एस फसल का नुकसान उठाना पड़ सकता है।
2. फसलों का डालपात मुलायम हो। मुलायम डालपात तथा रेशाविहिन फसलों का अपघटन शीघ्र होता है तथा ऐसी फसलों के अपघटन के लिये रेशेदार फसलों की अपेक्षा कम पानी की आवश्यकता होती है। हरी खाद के लिये मुलायम एवं रेशाविहिन फसलों का, ऐसे क्षेत्रों मे जहाँ कम वर्षा या पानी का अभाव हो, विशेष महत्त्व की है। जैसे लोबिया, उड़द, मोठ, कुल्थी, कदोजीरा, बरसीम, मुलायम डालपात वाली हरी खाद की फसलें है।
3. फसलों में अधिक शाखा व पत्ती हो। इससे भूमि में अधिक नाइट्रोजन मिलाई जा सकती है। अधिक डालपात वाली फसल का अपघटन भी जल्दी हो जाता है। ढैचा, वाकुची, लोबिया, कुदूजवाइन इस शर्त पर पूर्ति करने वाली फसलें है।
4. फसलों की जड़ें काफी गहरी हो। गहरी जड़ों वाली फसलें भूमि के नीचे तक घुसकर उसे भुरभुरा बना देती है तथा भूमि की निचली तह में उपस्थित भोजन तत्वों का उपयोग कर लेती है, जो बाद में हरी खाद के रूप में उपरी सतह में ही आ जाती है। यह बात भारी तथा बलुई किस्म की मिट्टियों में विशेष महत्त्व रखती है, क्योंकि हल्की भूमियों में घुलनशील तत्व नीचे चले जाते हैं तथा भारी भूमियों में जल निक्षालन तथा रिसाव बहुत कम होता है। सनई, ढैचा दोनों ही गहरी जड़ों वाली फसलें हैं।
5. बाजरा, ज्वार, मक्का आदि को जो दलहनी फसलें नहीं है फिर भी हरी खाद के लिये प्रयोग में किया जा सकता है। लेकिन अच्छा यही रहता है कि हरी खाद के रूप में किसी दाल वाली फसल को ही प्रयुक्त किया जाये। दलहनी फसलों की जड़ों में ग्रंथियाँ होती है। जिनमें उपस्थित अणुजीव राइजोबियम वायुमण्डल से नाइट्रोजन को भूमि में संचय एवं स्थिर करने की क्षमता रखते हैं।
6. हरी खाद के लिये फसलें सूखा अवरोधी रोग व कीट अवरोधी प्रचुर मात्रा में बीज पैदा करने वाली, अधिक वर्षा आदि से उत्पन्न होने वाली दशाओं को सहन करने वाली होनी चाहिए।
7. हरी खाद के लिये ऐसी फसलों का चुनाव किया जाये जो कृषकों के लिये सस्ती हो तथा दूसरी प्रयोग में भी प्रयुक्त होती हो। उदाहरण के लिये सनई की फसल खाद, रेशे, बीज, चारा आदि के उपयोग की है।
हरी खाद के लाभ
1. भूमि को जीवांश मिलता है जिससे लाभकारी जीवाणुओं की क्रियाशीलता बढ़ती है।
2. हरी खाद के पौधों द्वारा भूमि की गहरी सतह से लिये गए पोषक तत्व भूमि की ऊपरी सतह में आ जाते हैं।
3. इससे भूमि की संरचना में सुधार होता है।
4. भूमि में जल शोषण व धारण शक्ति बढ़ती है जिससे भूमि कटाव रोकने में सहायता मिलती है।
5. गहरी खाद के लिये जब दलहनी फसलें उगाई जाती हैं तो उनके द्वारा वायुमंडल से स्वतंत्र नाइट्रोजन भूमि में इकट्ठी हो जाती है।
6. कुछ अनुपलब्ध तत्व जैसे फॉस्फोरस, कैल्शियम, पोटाश, मैग्नीशियम तथा लोहा आदि पोषक तत्वों की उपलब्धि बढ़ जाती है।
7. खरपतवार नियंत्रित होते है।
8. क्षारीय एवं लवणीयता वाली भूमियों में सुधार होता है।
9. मृदा संरचना में सुधार होता है।
10. फसलों के उत्पादन में वृद्धि होती है।
हरी खाद देने के सम्बन्ध में कुछ सुझाव
1. जिन क्षेत्रों में सिंचाई के साधन उपलब्ध हो वहाँ पर यदि समय पर वर्षा न हो तो सिंचाई करके हरी खाद की फसल बोयी जा सकती है यदि सिंचाई के साधनों का अभाव हो तो पहली वर्षा होते ही खेत जोतकर बीज की बुआई कर देनी चाहिए।
2. जिन खेतों में हरी खाद की फसल बोयी जाती हो वहाँ यह बात सुनिश्चित कर लेनी चाहिए कि आगामी फसल तब बोयी जाये जब हरी खाद की फसल पूर्ण रूप से सड़ चुकी हो। यदि हरी खाद आगामी फसल के लिये अस्थायी रूप से प्राप्त नाइट्रोजन की मात्रा में ह्रास हो सकता है। जिसका मुख्य फसल की प्रारम्भिक वृद्धि पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। वैज्ञानिकों का मत यह है कि ऐसी दशा में बाद का सड़ाव करने वाले बैक्टीरिया खेत में उपस्थित प्राप्त नाइट्रोजन को खा जाते हैं।
3. गैर दलहनी हरी खाद की फसलों में नाइट्रोजनीय खाद आवश्यकता के अनुसार प्रयोग करना चाहिए जबकि दाल वाली फसलों में 2 में 4 क्विंटल सुपरफास्फेट प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए। सुपरफास्फेट के प्रयोग से दाल वाली फसलों को बड़ा लाभ पहुँचता है। इसके लिये प्रयोग से इन फसलों की जड़ों में उपस्थित ग्रन्थियाँ अधिक संख्या में बनती है और उनका आकार भी बड़ा होता है। जिसके फलस्वरूप भूमि में अधिक नाइट्रोजन स्थिर होती है। प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका है कि मुख्य फसल को सुपर फॉस्फेट देने से जितना लाभ होता है उससे कहीं अधिक लाभ तब होता है जब सुपरफॉस्फेट हरी खाद की फसल में दिया जाता है।
4. हरी खाद का समुचित लाभ तभी प्राप्त किया जा सकता है जब उसकी वृद्धि तथा सड़ाव के लिये प्रयाप्त नमी खेत में हो। जिन क्षेत्रों में वर्षा ऋतु में 100 से 150 सेमी. वर्षा हो जाती है। वहीं हरी खाद की सभी फसलें बिना सिंचाई के पैदा की जा सकती है। इसके विरुद्ध 50 से 60 सेमी. से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधा के बिना हरी खाद नहीं होनी चाहिए। प्रयाप्त वर्षा वाले क्षेत्रों में कभी-कभी लम्बी अवधि तक सूखा पड़ जाता है ऐसी स्थिति में फसल की वृद्धि को प्रोत्साहित करने के लिये या अगर फसल खेत मे दबी पड़ी हो तो उसके अपघटन को सुचारू रुप से चलाने के लिये सिंचाई करनी आवश्यक होती है। जिस हरी खाद में उर्वरकों का प्रयोग किया गया हो, उनमें तो नमी का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
5. हरी खाद को मिट्टी पलटने वाले लोहिया हल से मिट्टी की मोटी तह से अच्छी तरह दबा देना चाहिए। समान रूप से विघटन के लिये यह आवश्यक है कि जड़ों के पास पत्तियों तथा शाखाओं को दबाया जाये। शुष्क क्षेत्रों में हरी खाद की छोटी अवस्था में ही जब काफी कोमल हो दबा देना चाहिए। पर्याप्त वर्षा वाले अथवा सिंचित इलाकों में फसल को तब दबाना चाहिए जब उसमें सबसे अधिक कार्बनिक पदार्थ हो हर दशा मे यह फसल मुख्य फसल की बुआई से एक से डेढ महीने पहले आवश्यक रूप से खेत में जोत देनी चाहिए।
हरी खाद की खेती
1. जलवायु - फसल एवं उत्तम हरी खाद के लिये नम जलवायु का होना आवश्यक है। फसलों की वृद्धि व विच्छेदन के लिये कम-से-कम 60 सेमी. वर्षा का होना आवश्यक है।
2. भूमि का चुनाव - चिकनी व लवणीय भूमि के लिये ढैचा, बरसीम व बलुई व कम उर्वरकता वाली भूमियों के लिये सनई, मूँग, उदड़, ज्वार आदि उपयुक्त फसलें रहती हैं।
3. भूमि की तैयारी - हरी खाद की फसलों को बोने हेतु खेती की विशेष तैयारी की आवश्यकता होती है। आवश्यकता होने पर 1 या 2 जुताई कर खेत तैयार किया जा सकता है।
4. बोनी का समय - खरीफ फसलें जैसे सनई, ढैचा, उड़द, लोबिया, ज्वार, मूँग आदि को वर्षा आरम्भ होते ही बोनी की जाती है जिन क्षेत्रों में सिंचाई के साधन उपलब्ध हैं वहाँ पर रबी की फसलों को काट कर अप्रैल, मई, जून में खेत का पलेवा करके हरी खाद की फसलों की बुआई कर सकते है। रबी की फसले मटर, बरसीम, मेथी आदि को अक्टूबर मसूर आदि को दिसम्बर तक व मेथी, सैजी की बुआई जनवरी तक अन्य फसलों की कटाई करने के बाद करते हैं।
5. बीज दर - हरी खाद के लिये बोयी जाने पर प्रति इकाई क्षेत्र अधिक बीज बोया जाता है जैसे सनई 40, ढैचा 30, ज्वार 20, लोबिया 50, मटर 100, सैजी 30, मूँग व उड़द 30 व बरसीम की बीज 20 कि.ग्रा./हे. की दर से उपयोग किया जाता है।
6. सिंचाई - जहाँ पर सिंचाई उपलब्ध हो वहाँ पर फसल की आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए।
7. फसल पलटाई का समय - फसल की विशेष अवस्था पन पलटाई करने से भूमि की सबसे अधिक नत्रजन व जीवांश पदार्थ प्राप्त होता है। इस अवस्था के पूर्व या बाद में पलटाई करना लाभदायक नहीं होता है। यह विशेष अवस्था में हो और फसल में फूल निकलने प्रारम्भ हो गए हों इस समय पर वानस्पतिक वृद्धि अधिक होती है तथा पौधों की शाखाएँ व पत्तियाँ मुलायम होती हैं। इस अवस्था में कार्बन नत्रजन अनुपात भी कम होता है। सनई की फसल में 50 दिन बाद ढैचा, 40 दिन बाद यह अवस्था आती है। बरसीम आदि की फसलों से 2-3 कटाई के पश्चात फसल की खेती में दबा सकते हैं।



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